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________________ कर्म-विज्ञान : कर्म का विराट् स्वरूप (३). कदाचित् किसी अशुभ कर्म के उदय से फलाकांक्षा पूर्ण न हो, उसमे कोई विघ्न-बाधा आ जाए तो उस समय एक ओर तो अपने पर, भगवान् पर, काल पर या विघ्नादि करने वाले निमित्तों पर क्रोध, द्वेष, रोष, घृणा, ईर्ष्या, वैरभाव, जुगुप्सा, झुंझलाहट, झल्लाहट आदि तथा दूसरी ओर निराशा, शोक, लोभ, क्षोभ, चिन्ता, व्यग्रता, उद्विग्नता और भीति, अरति आदि पैदा हो जाती है। ५६६ इस प्रकार सकाम कर्म के साथ फलाकांक्षा की भूमि पर तुच्छ स्वार्थ के रूप में जीवन को कलुषित एवं पापकालिमा से तमसाच्छन्न करने वाले समस्त तीव्र कषाय तीव्र गति दौड़ लगाते रहते हैं। अतः लोभ और अहंकार के राज्य में होने के कारण सकाम कर्म में स्वामित्व, कर्तृत्व और भोक्तृत्व ये तीनों भाव तुच्छ स्वार्थ से ओतप्रोत हैं । " यद्यपि निष्कामकर्म में भी परार्थ तथा परमार्थ में भी शीघ्र सफल होने की इच्छा वाला स्वार्थ अवश्य होता है, परन्तु फलभोग की आकांक्षा, अहंकर्तृत्व, कर्मफलासक्ति आदि न होने के कारण वह स्वार्थ तुच्छ एवं निपट स्वार्थ नहीं कहलाता । निष्कामकर्म में परहितार्थ कर्म होने से वह निपटस्वार्थ से विपरीत है, इस कारण स्वामित्व, अहंकर्तृत्व एवं अहं भोक्तृत्व ये तीनों भाव उसमें सम्भव नहीं हैं। निपटस्वार्थ से अस्पृष्ट होने के कारण परार्थ एवं परमार्थ से ओतप्रोत निष्काम कर्म में ये तीनों भाव सम्भव नहीं है। इसका यह अर्थ नहीं कि निष्कामकर्मी (गीता की भाषा में कर्मयोगी): अपने कर्म का फल सर्वथा नहीं भोगता अथवा उसके द्वारा प्राप्त विषय का वह सर्वथा सेवन नहीं करता। वह उसका सेवन अवश्य करता है, किन्तु अहंकर्तृत्वविषयक आसक्ति तथा अहंभोक्तृत्वविषयक लालसा तथा फलप्राप्तिविषयक तृष्णा, कामना, यशोलिप्सा अथवा कर्मफलासक्ति उसमें नहीं होने से वह बाहर से पदार्थों या विषयों का यथायोग्य मर्यादा में यतनापूर्वक उपभोग या सेवन करता हुआ भी भीतर में निर्लेप रहता है। भगवद्गीता में इस कर्म को तदर्थ कर्म (परमात्मार्थ-शुद्धात्म-प्राप्त्यर्थं कर्म) तथा यज्ञार्थ (परार्थ या परोपकारार्थ) कर्म कहा गया है। वहाँ यह भी बताया गया है कि हे अर्जुन! यज्ञार्थ (परोपकारार्थ या परमार्थ) कर्म के सिवाय अन्य कर्म में संलग्न यह मानव कर्म-बन्धन कर लेता है। इसलिए १. कर्मरहस्य (जिनेन्द्र वर्णी) से भावांश पृ. १४० २ . वही, पृ. १४० ३. वही, पृ. १४२ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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