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________________ ५६४ कर्म - विज्ञान : कर्म का विराद स्वरूप (३) ये बात सकाम हैं, निष्काम नहीं यही कारण है कि औपपातिकसूत्र में सम्यग्दर्शन से रहित तापसों के विविध प्रकार के तपःकर्म को बालतप एवं सकामतप कहा गया है। भगवतीसूत्र में तामली तापस आदि के तपश्चरण को भी कामनामूलक (सकाम) होने से बालतप कहा गया है। " कर्म-त -त्याग का उपदेश परम्परा से निराकुल सुख के लिए है निष्काम कर्म के सन्दर्भ में जिनेन्द्रवर्णी जी का स्पष्ट अभिमत है कि "कर्म त्याग का उपदेश वास्तव में कर्म त्याग न होकर कामना-त्याग के लिये है । वासना-त्याग का उपदेश संस्कारोच्छेद के लिये, संस्कारोच्छेद का उपदेश (अह॑त्व-ममत्वादि के) बन्धन - छेद या पारतंत्र्योच्छेद के लिए तथा पारतंत्र्योच्छेद का उल्लेख तन्मूलक आभ्यन्तर दुःखोच्छेद के लिये और दुःखोच्छेद का उल्लेख निराकुल सुख की प्राप्ति के लिए है। जिस प्रकार अन्धकार का विनाश तथा प्रकाश की प्राप्ति दोनों एक ही बात है, उसी प्रकार आभ्यन्तर दुःख का उच्छेद और निराकुल सुख की प्राप्ति भी वास्तव एक ही बात है। " २ सकाम निष्काम दोनों कर्मों में कामना होते हुए भी महान् अन्तर पूर्वोक्त प्रकार से निष्काम और सकाम दोनों ही कर्मों में कामना विद्यमान होते हुए भी दोनों में महान् अन्तर है । सकामकर्म में वर्तमान के साथ भविष्य में भी फलभोग की आकांक्षा उठती है, और उठती रहती है, जबकि निष्काम कर्म फलभोग की कामना से निरपेक्ष तथा केवल दूसरे के हित और कल्याण की भावना से प्रेरित होता है । सकामकर्मी और निष्कामकर्मी के अन्तर को स्पष्ट करते हुए गीता में कहा है-(युक्त) निष्कामकर्मयोगी कर्म के फल का त्याग कर परमात्मप्राप्तिरूप नैष्ठिक शान्ति को प्राप्त करता है, जबकि सकामकर्मी पुरुष फल में आसक्त होकर विविध (वर्तमान और भविष्य) की कामनाओं द्वारा बंधन में पड़ जाता है । निष्कामकर्मयोगी इन्द्रियों, मन, बुद्धि और काया के द्वारा भी आसक्ति का त्याग करके अन्तःकरण की शुद्धि के लिए कर्म करते हैं। ऐसे जो व्यक्ति अपने समस्त कर्मों को प्रभु समर्पण करके और फल के प्रति १ (क) उववाईसूत्र में देखें- बालतप और बाल तपस्वियों का विवरण (ख) देखिये - भगवतीसूत्र शतक ३, उ. २ में तामलि बाल तपस्वी का वर्णन २ कर्मरहस्य (जिनेन्द्रवर्णी) से साभार पृ. १३८ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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