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________________ ५५६ कर्म-विज्ञान : कर्म का विराट् स्वरूप (३) . प्रवृत्ति या साधना अथवा आचरण या धार्मिक पवित्र विधि-विधानों या क्रियाओं का पालन भी आत्मकल्याण या स्वपर-कल्याण की दृष्टि से किया जाता है, परन्तु उसके प्रारम्भ करने से सुख-शान्ति की प्राप्ति, स्वास्थ्यलाभ तथा हितकर होने की इच्छा या विकल्प रहता है। मन में सूक्ष्म अहंकर्तृत्व रहता है, वैसे पुण्यकर्म करने की प्रवृत्ति अधिक रहती है। यद्यपि निष्काम कर्म के फलाकांक्षा या फलभोग की आकांक्षा तथा उसके उत्कटरूप वाली तृष्णा, लालसा आदि नहीं होती, फिर भी किसी तथ्य या वस्तु को जानने और करने की इच्छा तो होती ही है। निष्काम कर्म वाले व्यक्ति की देवगुरु-धर्म के प्रति श्रद्धा रागयुक्त होती है, उसका संयम, गृहस्थ श्रावकवर्ग का संयमासंयम आदि भी रागयुक्त होता है। यद्यपि वह राग प्रशस्त होता है, फिर भी शुभ कर्मबन्धकारक तो होता ही है। यद्यपि निष्काम कर्मयुक्त साधक में इहलौकिक या पारलौकिक आशंसा (फलाकांक्षा, निदानरूप फलभोगाकांक्षा) जीवन-मरण की आकांक्षा, फलासक्ति आदि भी नहीं होते और शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, मिथ्यादृष्टिप्रशंसा एवं मिथ्यादृष्टिसंस्तव आदि सम्यक्त्व के अतिचारों से भी वह प्रायः दूर ही रहता है। फिर भी जब तक वीतरागता की भूमिका पर नहीं पहुँच जाता, तब तक बिना इच्छा या कामना के कोई भी कर्म सम्भव नहीं। लौकिक कार्यों की बात तो दूर रही, लोकोत्तर कार्यों या मोक्षमार्गरूप सम्यग्ज्ञान-दर्शन-चारित्र-तप की प्रवृत्ति भी बिना इच्छा या मुमुक्षा के सम्भव नहीं।' लोकसंग्रह के लिए मंगल पाठ श्रवण, प्रवचन, परोपकारार्थ कार्य करना आदि तथा प्रत्याख्यान, त्याग, नियम, व्रत आदि प्रदान करना, दीक्षा प्रदान करना, शास्त्राध्ययन करना-कराना आदि कार्यों में भी इच्छा अवश्य रहती है। अपने शिष्यों को अध्ययन कराने में भी गुरु की इच्छा अवश्य होती है कि यह शीघ्र ही विद्वान्, शास्त्रज्ञ एवं तत्त्वज्ञ बने। रुग्ण साधुसाध्वी की वैयावृत्य (सेवा) करने में भी यही इच्छा रहती है कि यह शीघ्र ही स्वास्थ्यलाभ करे। स्थविरकल्पी साधु वर्ग रुग्ण होने पर चिकित्सा कराने और शीघ्र नीरोग हो जाने की इच्छा करता है। १. (क) सरागसंयम-संयमासयमाऽकामनिर्जरा-बालतपांसि देवस्य॥ -तत्त्वार्थ सूत्र अ. ६ सू. २० (ख) कर्मरहस्य (श्री जिनेन्द्र वर्णी) से भावांश उद्धृत पृ. १३८ -वही, ७।१८ तथा ७।३२ (ग) लोकसंग्रहमेवापि संपश्यन् कर्तुमर्हसि। -गीता ३।२० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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