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________________ ५५४ कर्म-विज्ञान : कर्म का विराट् स्वरूप (३) काम शब्द में सुषुप्त अर्थों का क्रम श्री जिनेन्द्रवर्णी काम शब्द में सुषुप्त क्रम के सम्बन्ध में लिखते हैं इस संस्कार के कारण चित्त पर जो स्मृति का रंग चढ़ गया है, वह 'वासना' शब्द का वाच्य है। संस्कार के कोष में से निकलकर वह वासना जब 'इदं' का रूप धारण कर लेती है, और चित्त के समक्ष उपस्थित होती है, तब वह 'राग' कहलाती है। यह राग जब बुद्धि में प्रवेश करके विषय-प्राप्ति के लिए उसके चुटकियाँ भरने (काटने) लगता है, तब कामना' शब्द का वाच्य बन जाता है। यह कामना ही अहंकार की भूमि में आकर उसे उतावली करने के लिए प्रेरित करती है, तब 'आकाक्षा' कहलाती है। यह आकांक्षा ही जब मन में प्रवेश पाकर उसे इतना बेचैन पर. देती है कि वह बहिःकरण (बाह्य करण) को विषय-प्राप्ति के प्रति नियोजित करने में एक क्षण की प्रतीक्षा भी सहन नहीं कर सकती, तब 'इच्छा' कही जाती है। किसी स्वादिष्ट पदार्थ को देखकर जिस प्रकार स्वादलोलुप जीवों के मुख से लार टपकने लगती है, उसी प्रकार जब इन्द्रियाँ उस विषय के (उपभोग के) प्रति लालायित हो उठती हैं, तब इच्छा ही 'लालसा' कहलाती. है। विषय के प्राप्त हो जाने पर जब चित्त उसके साथ इस प्रकार तन्मय हो जाता है, (उस विषय को बार-बार भोगने की लालसा प्रबल हो जाती है) कि अहं का लोप होकर केवल 'इद' शेष रह जाए, तब लालसा (लोलुपता) 'आसक्ति' का रूप धारण कर लेती है। (वही आसक्ति उत्कटरूप धारण करके मूर्छा एवं गृद्धि बन जाती है) इस आसक्ति के फलस्वरूप जब मन में किसी एक ही विषय को निरन्तर पुनः पुनः प्राप्त करने की इच्छा प्रबल होने लगती है, तब वह 'तृष्णा' कहलाती है।' 'वासना' की सूक्ष्म भूमि से 'कामना' तक आने में 'काम' मध्यवर्ती हो जाता है। उसके बाद उत्तरोत्तर स्थूल होता जाता है। त्रिविधकृतक कर्म दो-दो प्रकार के हैं : सकाम और निष्काम कर्म का प्रक्रियात्मक स्वरूप नामक प्रकरण में हमने कुतक कर्म तीन प्रकार के बताये थे-ज्ञातृत्व, कर्तृत्व और भोक्तृत्व, अर्थात्-जानना, करना और भोगना। उपर्युक्त तीनों ही कृतक कर्म सकाम और निष्काम के भेद से दो-दो प्रकार के हो जाते हैं। सकाम और निष्काम कर्म की व्याख्या सामान्यतया सकाम और निष्काम कर्म का अर्थ है-फलभोग की आकांक्षा से युक्त कर्म सकाम है, और उससे निरपेक्ष है- निष्काम। स्पष्ट १. कर्मरहस्य (जिनेन्द्र वर्णी) से साभार उद्धृत पृ. १३५ २. कृतक कर्मों की व्याख्या के लिए 'कर्म का प्रक्रियात्मक स्वरूप' नामक प्रकरण देखिये। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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