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________________ ५३६ कर्म-विज्ञान : कर्म का विराट् स्वरूप (३) . डालता है। बाह्यदृष्टि से दोनों कायिक कर्म एक समान होते हुए भी दोनों कर्मों के कारण-(उद्देश्य) रूप आशय (मानसकम) पृथक्-पृथक् हैं। डॉक्टर का मानसकर्म रोगी को रोगमुक्त करने की भावनारूप होने से उसका कायिककर्म कुशल है जबकि हत्यारे का मानसकर्म वैरभावरूप है, इसलिए उसका कायिक कर्म अकुशल है।" - इसलिए बौद्धदर्शन में कर्ता के अभिप्राय को ही कर्म के कुशलत्व (शुभत्व) एवं अकुशलत्व (अशुभत्व) का आधार माना गया है। इसका ज्वलन्त प्रमाण है-'सूत्रकृतांग' में उल्लिखित बौद्ध-आर्द्रक-संवाद । बौद्धों ने जब अपना मत प्रतिपादित किया कि-"कोई व्यक्ति खली के पिण्ड को पुरुष मानकर उसे शूल में बेध कर पकाए और खाए, अथवा तुम्बे को बालक समझकर पकाए और खाए तो वह हिंसा के पाप का भागी होता है; किन्तु यदि कोई व्यक्ति मनुष्य को खली समझकर अथवा बालक को तुम्बा समझकर पकाए और खाए तो वह प्राणिघात के पाप का भागी नहीं होता, वह पवित्र है, वह (आमिष) आहार, बुद्ध के पारणा योग्य है। इस प्रकार का (आमिष) भोजन पकाकर जो प्रतिदिन दो हजार भिक्षुओं को भोजन कराता है, वह महान् पुण्य अर्जन करके महापराक्रमी आरोग्य नामक देव होता है।" ____ आर्द्रककुमार ने इसका प्रतिवाद करते हुए निर्ग्रन्थ मत का प्रतिपादन किया कि “प्राणियों का घात करके भी पाप का अभाव कहना और सुनना, अज्ञानवर्धक और बुरा है।.......जो व्यक्ति खली के पिण्ड में पुरुष बुद्धि अथवा पुरुष में या बालक में खली के पिण्ड या तुम्बे की बुद्धि करता है, वह अनार्य और मूर्ख है। ऐसा वचन कहना भी पापकारी है, मिथ्या है। दो हजार स्नातक भिक्षुओं को प्रतिदिन ऐसा (आमिष) आहार कराता है, वह असंयमी और रुधिर से लाल हाथ वाला पुरुष इस लोक में निन्दनीय बनता है। और जो मोटे भेड़े को मारकर उसे पकाकर बौद्ध भिक्षुओं को भोजन कराते हैं, वे तो अनार्य हैं ही। जो बौद्ध भिक्षु स्वादलोलुप होकर इस प्रकार का प्रचुर मांस खाते हुए भी कहते हैं कि हम पाप से लिप्त नहीं होते, वे भी मिथ्यावादी हैं, अनार्य हैं, अनार्यकर्मा हैं। इस प्रकार के संवाद से स्पष्ट है कि बौद्धदर्शन ने शुभाशुभकर्म के आधार के सम्बन्ध में एकान्त मनोभाव (कर्ता का आशय) ही माना है, १. (क) बौद्धधर्म-दर्शन (आचार्य नरेन्द्रदेव) से पृ. २२४/२२५, २५६/२५७ (ख) धम्मपद १/१ २. सूत्रकृतांग सूत्र श्रु. २, अ. ६, गा. २७ से ४५ तक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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