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________________ ५१८ कर्म-विज्ञान : कर्म का विराट् स्वरूप (३) सक्रियतामात्र कर्म नहीं, वह अकर्म भी : क्यों और कैसे ? इसी प्रकार सक्रियता (प्रवृत्तिमात्र या यावत्काय) को भी कर्म मानना युक्ति और जैनकर्म-सिद्धान्त से विरुद्ध है। यदि इस प्रकार प्रवृत्तिमात्र, यावत् कार्य या क्रिया को कर्म-हेतुक या कर्मबन्धक माना जाएगा तो वीतरागकेवली भगवान् या तीर्थंकरों के भी कर्मबन्ध होने लगेंगे। फिर तो वीतरागदृष्टि से तथा अकषायवृत्ति से युक्त अप्रमत्त साधक या तीर्थकर अथवा केवली भगवान् से होने वाली क्रिया या प्रवृत्ति को भी 'बन्धक कर्म' वाली कहनी पड़ेगी। जबकि सिद्धान्तानुसार वीतराग सयोगी केवली, तीर्थकर आदि को सशरीरी (सदेह) होने के कारण साम्परायिकी क्रिया नहीं लगती, सिर्फ ईपिथिकी क्रिया लगती है। साम्परायिकी क्रिया तो उन्हें तब लगती, जब वे कषाययुक्त या रागादियुक्त होते। साम्परायिकी क्रिया ही कर्मबन्ध का कारण है, ईर्यापथिकी क्रिया नहीं। अतः सदेह वीतराग केवली तथा तीर्थकर द्वारा सर्वथा कर्ममुक्त न होने तक आहार-विहार, उपदेश, वार्तालाप, दीक्षा-प्रदान, तपस्या, महाव्रत-पालन, तीर्थकर स्थापित चतुर्विध संघ के श्रेय के लिए अनिवार्य कर्तव्य, तथा संयम आदि अनेक आवश्यक . कार्य होते हैं; किन्तु वे ऐर्यापथिक क्रिया जनित शुभकर्मास्रव बन्धनकारक नहीं होते, क्योंकि केवल अप्रमत्त एवं कषायरहित योगों से होते हैं; प्रमाद तथा कषाययुक्त योगों से नहीं। अतः सक्रियता (प्रवृत्ति) होने पर भी वह कर्म बन्धकारक नहीं होती। व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र में स्पष्ट कहा गया है कि ईर्या (दैनिक चर्या, ईर्यासमिति) शोध कर चलते हुए भावितात्मा साधु के पैर के नीचे आकर यदि कोई जीव मर जाता है, तो उक्त साधु को ईपिथिकी क्रिया लगती है, साम्परायिकी नहीं। अर्थात्-उसकी वह क्रिया प्रमाद एवं कषाययुक्त योग से नहीं होती। इसलिए कर्मबन्धक नहीं होती। कर्मबन्धक न होने के कारण, वह कर्म होने पर भी 'अकर्म' कहलाती हैं। बल्कि वीतराग-अवस्था में हुई समस्त क्रियाएँ संवर और निर्जरा की कारण होने से भी 'अकर्म की कोटि में आती हैं। इसीलिए सूत्रकृतांग सूत्र में कहा गया है-अज्ञानी पुरुष कर्म (विविध पुण्य कर्मों के अनुष्ठान के साथ रागादि या कषायादि का मैल मिल जाने) से कर्मक्षय नहीं कर पाते; जबकि ज्ञानी धीर पुरुष अकर्म (कर्मबन्धरहित संवर निर्जरा-रूप कार्यो) से कर्म का क्षय कर डालते हैं।२ १ रा. ७ उ.१, श.८ उ.८, तथा श. १७ उ.१, एवं १८/८ २. (क) वही, श. ६ उ. ९, सू. १५२ तथा १६/३/५७० (ख) "न कम्मुणा कम्म खवेन्ति बाला, अकम्मुणा कम्म खति धीरा।" -सूत्रकृतांग सूत्र १/१२/१५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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