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________________ कर्मों के रूप : कर्म, विकर्म और अकर्म सभी सांसारिक प्राणी कर्म के चंगुल में विश्व में जितने भी सांसारिक प्राणी हैं, वे सब एक या दूसरे प्रकार से 'कर्म' के चंगुल में फंसे हुए हैं, कर्म की डोरी से वे सब बंधे हुए हैं। जब से प्राणी इस संसार में आया है, तभी से कर्म उसके साथ किसी न किसी रूप में लगा हुआ है। वह कितना ही बचकर चले, फिर भी कर्म उसे किसी न किसी रूप में करना ही पड़ता है। वैदिक धर्म-परम्परा के मूर्धन्य ग्रन्थ भगवद्गीता में इसी दृष्टि से कहा गया है - १ "कर्मों का सर्वथा त्याग नहीं हो सकता, क्योंकि कोई भी जीव किसी काल में क्षणभर भी कर्म को किये बिना रह नहीं सकता, न ही रहता है। निःसंदेह सभी पुरुष (संसारी आत्मा) प्रकृति (कर्मप्रकृति) से उत्पन्न हुए (उदय में आए हुए) गुणों के द्वारा परवश होकर कर्म करते हैं । "" अतः कोई भी पुरुष (जीवात्मा) कर्मों के न करने मात्र से निष्कर्मता' को प्राप्त नहीं हो जाता। और न ही (बिना शुभ उद्देश्य के) कर्मों को त्यागने मात्र से सिद्धि (मुक्ति या परमात्मत्वप्राप्ति) को प्राप्त होता है । " २ इन्द्रियाँ निश्चेष्ट : मनकामनावश : मिथ्याचार है भगवद्गीता के अनुसार "कोई व्यक्ति कर्मेन्द्रियों को रोककर मन से उन-उन कर्मों (क्रियाओं) का चिन्तन-मनन- स्मरण करता रहता है, अथवा इन्द्रियों के विभिन्न विषयों को प्राप्त करने, भोगने और सुख पाने की मन ही मन कामना करता रहता है, वह मिथ्याचारी ( दम्भी) है।" इन्द्रियों को निश्चेष्ट कर देने मात्र से किसी सांसारिक प्राणी का कर्म करना बंद नहीं हो १. नहि कश्चित् क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत् । कार्यतेह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैः गुणैः ॥ २. न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते । न च संन्यसनांदेव सिद्धिं समधिगच्छति ॥ ५०.१ Jain Education International For Personal & Private Use Only - गीता ३/५ - वही, ३/४ www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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