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________________ कर्म और नोकर्म : लक्षण, कार्य और अन्तर ४९३ आता है, और उसकी क्षुधाजन्य पीड़ा को देखकर उसे सुस्वादु भोजन कराता है। इससे क्षुधाजन्य वेदना दूर होने से उसे परम सुख का संवेदन (अनुभव) हुआ। यहाँ परम सुख का अनुभव कराने में सातावेदनीय कर्म का उदय मुख्य कारण (निमित्त) है, और साता के उदय में अन्य मनुष्य द्वारा दिया गया सुन्दर सुस्वादु भोजन कारण (गौण निमित्त) है। यह द्रव्य (पुद्गल) रूप नोकर्म का उदाहरण है।' क्षेत्र-काल निमित्तक नोकर्म का उदाहरण इसी प्रकार क्षेत्ररूप नोकर्म का उदाहरण लीजिए-मान लीजिए, किसी व्यक्ति को राजस्थान जैसा उष्णता प्रधान क्षेत्र मिला। राजस्थान में लू बहुत चलती है। उस व्यक्ति को लू लग गई। लू लगना या न लगना असातावेदनीय कर्म के अधीन नहीं। ल लगना ही यदि असातावेदनीय कर्म के कारण ही हो तो राजस्थान वाले को ही क्यों लगे, दक्षिण भारत के भी उष्णता प्रधान क्षेत्र के लोगों को क्यों नहीं लगती? कर्म ऐसा पक्षपात तो नहीं करता। फिर तो जैसे कई ईश्वरकर्तृत्ववादी लोग ईश्वर पर पक्षपात का आरोप लगाते हैं, वैसे ही कर्म पर भी पक्षपात का आरोप लगाने लगेंगे। किन्तु यह पक्षपात नहीं है। लू आदि लगना असातावेदनीय कर्म का कार्य नहीं। राजस्थान के भी सभी लोगों को लू नहीं लगती। जिस व्यक्ति में गर्मी सहन करने की शक्ति होती है, तथा जो सावधानी रखता है, उसको सहसा लू नहीं लगती। जिसके द्वारा असातावेदनीय कर्म बांधा हुआ है, उसको लू लगने पर उसके कारण असातावेदनीय कर्म का उदय हो जाता है, और लू उसे क्षेत्रीय नोकर्म के रूप में प्रतिकूल संवेदन में गौणनिमित्त या सहायक बन जाती है। जिसके असातावेदनीय कर्म बाँधा हुआ होता है, उसे सर्दी के मौसम में फ्लू, नजला, जुकाम आदि रोग हो जाते हैं, उस समय कालगत नोकर्म प्रतिकूल'वेदन कराने में सहायक बन जाता है, असातावेदनीय का उदय हो जाता है। प्रत्येक मनुष्य का द्रव्यगत, क्षेत्रगत, कालगत और भावगत नोकर्म पृथक् पृथक् होता है। . भौगोलिकता, वातावरण, पर्यावरण, परिस्थितियाँ, आदि सब भी नोकर्म हैं। भौगोलिकता एवं प्रादेशिकता (क्षेत्रीय) नोकर्म के निमित्त से कहीं का मनुष्य काला, कहीं गोरा, कहीं पीला और कहीं गेहूँवर्णा होता है, उनके होने पर जैसा-जैसा शुभाशुभ संवेदन होता है, तदनुकूल असाता या सातावेदनीय कर्म का उदय होता है। १. महाबन्धों पु: २ प्रस्तावना (पं. फूलचन्द सिद्धान्तशास्त्री) से पृ. २२ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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