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________________ कर्म और नोकर्म : लक्षण, कार्य और अन्तर ४८९ अतः नोकर्म वास्तव में कर्म नहीं है; मगर वह लगता है, कर्म जैसा ही । नो का अर्थ ईषत् होने से वह ईषत् अर्थात् - छोटा या किञ्चित् कर्म है।' स्थूल सूक्ष्म सभी पंचभौतिक पदार्थ शरीर में अन्तर्भूत होने से नोकर्म हैं श्री जिनेन्द्रवर्णी के अनुसार “यद्यपि औदारिक आदि शरीर (अंगोपांग, इन्द्रिय आदि) कहने से चेतन की समस्त प्रवृत्तियों के प्रधान कारण भूत इस स्थूल शरीर का ग्रहण होता है, तथापि तात्त्विक दृष्टि से देखने पर जगत् में स्थूल या सूक्ष्म, जो भी, जितने भी दृष्ट पदार्थ हैं, वे सब इसी में गर्भित हैं, (इसी से सम्बद्ध हैं); क्योंकि जितने भी दृष्ट पदार्थ हैं, वे सब या तो आज किसी के शरीर हैं या पहले किसी के शरीर रह चुके हैं। जीवात्मा के द्वारा त्यक्त हो जाने से भले ही आज वे सब भौतिक (पौद्गलिक) या जड़ पदार्थों के रूप में ग्रहण किये जाते हों, परन्तु उनका पूर्व - इतिहास खोजने पर पता चलता है कि ये सब पहले किसी न किसी जीव के शरीर (कलेवर) रह चुके हैं जैसे कि काष्ठ, कड़ी, फर्नीचर आदि सब वनस्पतिकाय के मृतक शरीर हैं, और महल, मकान, मशीनें, धन, आभूषण, सोना-चांदी आदि धातु, बर्तन, पेट्रोल आदि सब पृथ्वीकाय के मृत शरीर (कलेवर) हैं। ‘इस प्रकार पंच-भौतिक नाम से प्रसिद्ध जितने कुछ भी पदार्थ हमारे व्यवहारपथ में आ रहे हैं। वे सब इस जीवित शरीर की भांति ही शरीर हैं।" " २: साक्षात् कर्म न कहकर नोकर्म क्यों कहा गया ? ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा होने पर ही उनके संयोग तथा वियोग के लिये हमारी सकल प्रवृत्तियाँ प्रारम्भ होती हैं। अतः ये हमारी प्रवृत्तियों के कारण अवश्य हैं, इसलिए (द्रव्य) कर्म हैं, परन्तु कर्म होते हुए भी कार्मणशरीर की भांति ये कर्मों के संस्कारों को ग्रहण करने में समर्थ नहीं हैं। इसलिए इन्हें साक्षात् कर्म न कहकर, नोकर्म अथवा किञ्चित् (ईषत्) कर्म कहा गया है । "३ इसी कारण एक आचार्य ने नोकर्म का लक्षण किया है - "औदारिक, वैक्रिय और आहारक शरीर तथा आहारादि छह पर्याप्तियों के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करने को 'नोकर्म' कहते है। १४ १ कर्ममीमांसा (स्व. युवाचार्य श्री मधुकरमुनि) पृ. ३०-३१ २ कर्मरहस्य (जिनेन्द्रवर्णी) से पृ. १२६-१२७ ३ वही, पृ. १२७ जैनदर्शन में आत्मविचार (डॉ. लालचन्द जैन) में उद्धृत पृ. १९७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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