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________________ कर्म का प्रक्रियात्मक स्वरूप ४७३ "इसी प्रकार हम रागद्वेषादिरूप भावकर्म के द्वारा कर्म-पुद्गलरूप द्रव्यकर्म को अपनी ओर आकर्षित करते हैं, हम उनका ग्रहण-आहरण करते हैं।" ".... वे पुद्गगल आकर हमारे (जीव के) साथ मिल जाते हैं, (आत्मा के साथ) चिपक जाते हैं। चिपकने के बाद उनमें जो व्यवस्था होती है, वह खाये हुए भोजनोपरान्त होने वाली पूर्वोक्त प्रक्रिया की तरह) स्वतः संचालित व्यवस्था होती है। वह अपने आप होने वाली व्यवस्था है। (अर्थात्-) उन गृहीत (कम) पुद्गलों का वर्गीकरण भी...विभाजन हो जाता है। और जैसे भोजन में खाये बहुत प्रकार के पदार्थों के स्वभाव का निर्णय होता है, (उसी प्रकार उन गृहीत कर्मपुद्गलों) के स्वभाव का निर्णय भी हो जाता है।" ___ "(जैसे-) शरीर को प्रोटीन की आवश्यकता है तो (खाये गए) भोजन में जो प्रोटीन का भाग है, वह प्रोटीन की पूर्ति कर देता है। चिकनाई की जरूरत होती है, वह (खाये हुए) स्निग्ध पदार्थों से पूरी हो जाती है। श्वेतसार की जरूरत होती है, वह (भुक्त) खाद्यों से पूरी हो जाती है। जिन तत्त्वों या विटामिनों की जरूरत होती है, वे विटामिन (भुक्त) भोजन के माध्यम से (यथायोग्य अवयवों-स्थानों) में पहुँच जाते हैं और अपना काम प्रारम्भ कर देते हैं।" ___"जैसे शरीर के किसी भी हिस्से (सिर, पेट, पीठ आदि ) में दर्द हो और आप पेट में दवा डालते हैं कि वह रुग्ण हिस्सा स्वस्थ हो जाता है। अर्थात्-जहाँ दर्द होगा, वहीं उस दवा की स्वतः क्रिया-प्रक्रिया होगी और वह रुग्ण अवयव स्वस्थ हो जाएगा। ऐसा क्यों होता है ?" "इसका समाधान है-शरीर में ऐसी स्वाभाविक व्यवस्था है। जिस अवयव में जिस तत्त्व की कमी होगी, वह तत्त्व उसी दिशा में स्वतः आकृष्ट हो जाएगा, वहीं जायेगा और उस कमी को पहले पूरी करेगा। शरीर के जिन सेल्स या अवयवों में प्रोटीन की कमी होगी, प्रोटीन का भोजन (पेट में) लेते ही वह प्रोटीन उन्हीं सेल्स-अवयवों की ओर आकर्षित होगा, क्योंकि शरीर में आकर्षण की ऐसी एक व्यवस्था है। वह अपने-अपने अनुकूल तत्त्वों को अथवा सजातियों को सजातीय मान लेता है।" हमारे कर्म-परमाणुओं की भी यही व्यवस्था है। (जीव द्वारा अपने रागादिरूप भावकर्म से) जो (कम) परमाणु गृहीत होते हैं, वे अपने-अपने सजातीय कर्म-परमाणुओं द्वारा खींच लिये जाते हैं और उसी दिशा में वे सक्रिय हो जाते हैं। वे अपना काम करने लग जाते हैं। उनमें फल देने की शक्ति (स्वतः) हो जाती है। १. कर्मवाद से साभार उद्धृत पृ. ३६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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