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________________ आत्मा का अस्तित्व : कर्म-अस्तित्व का परिचायक प्रज्ञान,' आनन्द आदि से पर, इन सबसे भिन्न स्वयं स्व पर प्रकाशक, · ज्ञानमय, आनन्दमय, अनन्तशक्तिमय माना । बहुत ही संक्षेप में यदि हम कहना चाहें तो यह कह सकते हैं कि आत्मा के सम्बन्ध में दार्शनिक विविध दृष्टियों से चिन्तन करते रहे हैं। श्वेताश्वतरोपनिषद् में भूतचैतन्यवाद का उल्लेख है। विशेषावश्यक भाष्य में भूतचैतन्यवाद का वर्णन किया है जो ५ भूतों से जीव उत्पन्न हुआ मानते थे। अजितकेशकम्बली का अभिमत था कि चार भूतों से ही पुरुष उत्पन्न होता है। इस मत से मिलता-जुलता तज्जीवतच्छरीरवाद था । पर वे दोनों पृथक थे ऐसा पं. सुखलाल जी प्रभृति विज्ञों का अभिमत रहा है। छन्दोग्योपनिषद् में एक सम्वाद है । उसमें बताया है- देह ही आत्मा है। इस विचार-धारा पर जब चिन्तन आगे बढ़ा तो दूसरी स्थिति में प्राण को आत्मा माना गया। उसके पश्चात् मनोमय आत्मा का निरूपण किया गया। जब चिन्तकों का चिन्तन मन के पश्चात् आगे बढ़ा तो उन्होंने प्रज्ञा को आत्मा कहा । इन्द्रियां और मन ये दोनों प्रज्ञा के अभाव में अकिंचित्कर हैं। इन्द्रियों और मन से प्रज्ञा का अधिक महत्व है। ऐतरेय में प्रज्ञा और प्रज्ञान को एक माना है और वहाँ पर प्रज्ञा के पर्याय के रूप में विज्ञान शब्द व्यवहरित हुआ है। विज्ञान, प्रज्ञा, प्रज्ञान ये सभी शब्द एकार्थक हैं इसी दृष्टि से आत्मा को विज्ञान आत्मा, प्रज्ञात्मा और प्रज्ञानात्मा कहा गया है। मन को कितने ही दार्शनिक, भौतिक और कितने ही दार्शनिक अभौतिक मानते हैं। जब आत्मा को विज्ञान की संज्ञा दी गई तब आत्म-चिन्तन के क्षेत्र में एक नवीन परिवर्तन हुआ और वह यह था कि आत्मा एक अभौतिक तत्व है, वह चेतन है अतः इन्द्रियों के विषयों का नहीं, अपितु इन्द्रियों के विषय के ज्ञाता प्रज्ञात्मा का ध्यान करना चाहिए। कौषीतकी उपनिषद् में इसीलिए ऋषियों ने कहा- "मन का ज्ञान आवश्यक नहीं पर मनन करने वाले का ज्ञान आवश्यक है ।" इन्द्रिय आदि साधनों से पर जो प्रज्ञात्मा है, उसे जानना चाहिए। कौषीतकी उपनिषद् में समस्त इन्द्रियाँ और मन को प्रज्ञा में प्रतिष्ठित किया गया है। जैसे मानव सुप्त या मृतावस्था में होता है, उस समय इन्द्रियाँ प्राण रूप प्रज्ञा में अन्तर्हित हो १ (क) 'प्रज्ञानं ब्रह्म' - ऐतरेयोपनिषद ३/२, (ख) 'प्राणोऽस्मि प्रज्ञात्मा । -कौषीतकी उप. ३ / २-३ (ग) छान्दोग्य ८ / ११, वृहदारण्यक १/१५/२० २ (क) कैनोपनिषद् १/२, १/४ - ६ (ख) तैत्तिरीय २-६ ( ग ) सर्वत्येतद् ब्रह्म, माण्डूक्य २ अयामात्मा ब्रह्मा ३ नाणं च दंसण चेव चरितं च तवो तहा । वीरिय उवओगो एयं जीवस्स लक्खणं ॥ २७ Jain Education International For Personal & Private Use Only - उत्तराध्ययन २८/११ www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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