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________________ ४५८ कर्म-विज्ञान : कर्म का विराट् स्वरूप (३) . आत्माओं के साथ भी सदैव कर्म संलग्न रहेगा। ऐसी स्थिति में संसारी और मुक्त, दोनों प्रकार की आत्माओं में कोई भी अन्तर नहीं रह जाएगा।' ____ अतः कर्म आत्मा का गुण नहीं है। वह मूर्त है, आत्मा अमूर्त है, इसलिए दोनों विजातीय द्रव्य हैं। कर्म सूक्ष्म होते हुए भी मूर्त है यद्यपि कर्म चतुःस्पर्शी पुद्गल होने से सूक्ष्म है, इसलिए वह स्थूल नेत्रों से दृष्टिगोचर नहीं होता, तथापि वह मूर्तिक (मूत) है, पौद्गलिक है; क्योंकि उसका कार्य जो औदारिक आदि शरीर है, वह मूर्तिक है। मूर्तिक की रचना मूर्त से ही हो सकती है। इसलिए दृश्यमान मूर्त औदारिकादि शरीरों (काय) से अदृश्यमान कर्म (कारण) में मूर्त्तत्व सिद्ध होता है। पौद्गलिक (मूर्तिक) कार्य का समवायी-कारण भी पौद्गलिक या मूर्तिक होता है। जैसे-मिट्टी आदि पौद्गलिक (मूर्तिक) है तो उससे निर्मित होने वाले घटादि पदार्थ भी पौद्गलिक (मूर्तिक) ही होंगे। गणधरवाद में कर्म की मूर्तत्व-सिद्धि _ 'गणधरवाद' में कर्म का मूर्तत्व सिद्ध करने के लिए कहा गया हैकर्म मूर्त हैं, क्योंकि आत्मा के साथ उनका सम्बन्ध होने से सुख-दुःख आदि की अनुभूति होती है। जैसे-"मूर्त अनुकूल आहार आदि से सुखानुभूति और मूर्त शस्त्रादि के प्रहार आदि से दुःखानुभूति होती है। आहार और शस्त्र दोनों ही मूर्त हैं, इसी प्रकार सुखः-दुःख का अनुभव कराने वाले कर्म भी मूर्त हैं। जो अमूर्त पदार्थ होता है, उससे सम्बन्ध होने पर सुखादि का अनुभव नहीं होता। जैसे-आकाश। कर्म से सम्बन्ध होने पर आत्मा सुख-दुःखादि का अनुभव करती है। अतः कर्म मूर्त हैं।" "जिससे सम्बन्ध होने पर वेदना का अनुभव हो, वह मूर्त होता है। जैसे-मूर्त अग्नि से सम्बन्ध होने पर वेदना की अनुभूति होती है, उसी प्रकार कर्म के साथ सम्बन्ध से प्राणियों को वेदना की अनुभूति होती है, जो उसे मूर्त सिद्ध करती है। अगर कर्म अमूर्त होता तो उससे सम्बन्ध होने पर वेदना का अनुभव नहीं होता, लेकिन कर्म के सम्बन्ध से वेदना का अनुभव होता है, इसलिए कर्म मूर्त है, अमूर्त नहीं।" कर्म मूर्त है, क्योंकि आत्मा और उसके ज्ञानादि भिन्न बाह्य पदार्थ से १. (क) तत्त्वार्थ वार्तिक ८/२/१० पृ. ५६६/८ २. (क) कर्म विचार (डॉ. आदित्य प्रचण्डिया-जिनवाणी में प्रकाशित लेख) पृ.७२ (ख) औदारिकादि कार्याणां कारणं कर्म मूर्तिमत्। __न ह्यमूर्तेन मूर्तानामारम्भः क्वापि दृश्यते॥ -तत्त्वार्थसार अ. ५ श्लोक १५ : Jain Education International For Personal & Private Use Only । www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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