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________________ ४५४ कर्म-विज्ञान : कर्म का विराट् स्वरूप (३) कर्म : मूर्तरूप या अमूर्त आत्म-गुणरूप ? कर्मशब्द का रूप और स्वरूप : दुर्गम्य एवं गहन कर्म शब्द इतना गहन और जटिल है कि उसका यथार्थ रूप और स्वरूप सहसा हृदयंगम नहीं हो सकता। यों तो भारतीय जन-जन के मन, वचन और तन पर कर्म शब्द चढ़ा हुआ है। झोपड़ी से लेकर महलों तक कर्म की चर्चा आबालवृद्ध की जिह्वा पर एक या दूसरे प्रकार से होती रही है, होती रहती है। परन्तु कर्म के यथार्थ रूप को जानने-समझने का उपक्रम कोई विरला व्यक्ति ही करता है। या तो वह जिस धर्म-सम्प्रदायपरम्परा का है, उसके द्वारा मान्य शास्त्रों-धर्मग्रन्थों अथवा गुरुओं से जैसा भी सुनता-समझता है, उसे ही आँखें मूंदकर अन्धविश्वास-पूर्वक मान लेता है, अथवा अपने पूर्वजों, बुजुर्गों अथवा कौटुम्बिक परम्परा के संस्कारवश 'कम' का रूप और स्वरूप जान लेता है। भारत के सभी आस्तिक दर्शनों ने कर्म शब्द पर अपने-अपने ढंग से विचार प्रस्तुत किया है। परन्तु पूर्ण तटस्थता एवं निष्पक्षता के साथ कहा जा सकता है कि 'कर्म' के रूप और स्वरूप पर जितनी गहराई और वैज्ञानिक ढंग से विश्लेषण जैनदर्शन ने किया है, उतना अन्य दर्शनों में नहीं मिलता। कर्म को मूर्तरूप न मानने का क्या कारण ? कुछ भौतिकवादी तथा चार्वाक आदि प्रत्यक्षवादी दर्शन अपनी अदूरदर्शिता अथवा केवल बाह्यदर्शिता-प्रत्यक्षदर्शिता को लेकर कर्म के रूप और स्वरूप को मानना तो दूर रहा, 'कम' के अस्तित्व तक को मानने से इन्कार करते हैं। वे महज इसलिए इन्कार करते हैं कि 'कर्म' इन चर्मचक्षुओं से प्रत्यक्ष दिखाई नहीं देता; कर्म का कोई रूप या चिन्ह उन्हें इन स्थूल आँखों से दृष्टगोचर नहीं होता। किन्तु वे अमुक शब्द, या मंत्र अदृश्य होने पर भी उसके प्रभाव या कार्य को जानकर उसे तो प्रत्यक्षवत् मान लेते हैं। विद्युत्-तरंगें स्थूल आँखों से न दिखाई देने पर भी भौतिक विज्ञानी उसके अस्तित्व और स्वरूप को मानते हैं। वर्तमान में तो वायरलेस, टेलिविजन, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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