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________________ ४४६ कर्म-विज्ञान : कर्म का विराट् स्वरूप (३) करने और उनका सुख-दुःख रूप फल भोगने में संसारी जीव लगा रहता है। कर्मों को भोगते-भोगते आत्मा काम, क्रोध, मद-मोहादि मलों से लिप्त होकर फल भोगते समय और नये-नये कर्म अर्जित कर लेती है। इस प्रकार कर्म का परिणाम फल और फल का परिणाम कर्म रूप में उदित होकर अजस्र गति से कर्मचक्र चलता रहता है। और एक के बाद एक जन्म ग्रहण करता चला जाता है। इस कर्मचक्र का कभी अन्त आता दिखाई नहीं देता। ऐसी स्थिति में प्रायः सामान्य जीव को कर्म की सबलता प्रतीत होती है, कर्मशक्ति ही आत्मा पर हावी होती जाती है।' राजवार्तिक में कर्मशक्ति का परिचय देते हुए कहा गया है-"सुखदुःख की उत्पत्ति में कर्म बलाधान हेतु है। चक्षुर्दर्शनावरण और वीर्यान्तराय के क्षयोपशम से तथा अंगोपांग नाम-कर्म के अवष्टम्भ (बल) से चक्षुदर्शन की शक्ति उत्पन्न होती है।" भगवती आराधना में बताया गया हैअसातावेदनीय का उदय हो तो औषधियाँ भी सामर्थ्यहीन हो जाती हैं। सर्वार्थसिद्धि भी इसी का समर्थन करती है-प्रबल श्रुतावरण के उदय से श्रुतज्ञान का अभाव हो जाता है। समयसार भी इसी तथ्य का समर्थक हैं"सम्यक्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र' के प्रतिबन्धक क्रमशः मिथ्यात्व, अज्ञान एवं कषाय नामक कर्म है। कर्मरूपी सूत्रधार की विलक्षण शक्ति इस कर्मशक्ति के कारण ही जीव को ऊँट, हाथी, बैल, मक्खी, मच्छर आदि का नाना आकार-प्रकार, डील-डौल, सौन्दर्य-असौन्दर्य, आदेयताअनादेयता, अच्छी-बुरी प्रकृति आदि प्राप्त होती है। संसार में ऐसा कौन-सा कार्य है, जो कर्मशक्ति की परिधि के बाहर हो। नाटक में अभिनय कराने वाले सूत्रधार के संकेत के अनुसार कार्य होता है, उसी प्रकार संसाररूपी नाटक का अभिनय कराने वाला कर्मरूपी महाबली सूत्रधार है, जो जीवों को अपने-अपने कर्मानुसार हीनता-उच्चता, वक्रता-सरलता, समलता-विमलता आदि विभिन्न भावों का अभिनय कराता है। अतः कर्मरूपी सूत्रधार की विलक्षण शक्ति ही संसार का विचित्र नाटक कराने में समर्थ है। १. जिनवाणी (कर्म सिद्धान्त विशेषांक) में प्रकाशित लेख से पृ. १४९ २. (क) राजवार्तिक ५/२४/९/४८८/२१, तथा १/१५/१३/६१/१५ (ख) भगवती आराधना मूल १६१० (ग) सर्वार्थ सिद्धि १/२०/१०१/२ (घ) समयसार मूल १६१-१६३ ३. महाबंधो भा..१ प्रस्तावना (पं. सुमेरुचन्द्र दिवाकर) से सारांश पृ.७५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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