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________________ कर्म का परतत्रीकारक स्वरूप ४२५ निष्कर्ष यह है कि जीवात्मा को इस प्रभुत्व-सामर्थ्य के लिए अर्थात्-कर्म की पराधीनता से छुटकारा पाने के लिए स्वयं प्रयत्न करना चाहिये। जीवात्मा द्वारा ऐसा आत्म-प्रयत्न ही, अध्यात्मशास्त्र में पर्याय से आत्मस्वातत्र्य माना गया है। आत्मा की इच्छा के बिना कर्म आदि उसे परवश नहीं कर सकते इसका फलितार्थ यह है कि आत्मा की इच्छा (संकल्प) के बिना कर्म आदि कोई भी सत्ता उसे न तो अपने अधीन कर सकती है, न ही उसके स्वभावों पर हावी होकर आत्मगुणों को आच्छादित, विकृत या कुण्ठित कर सकती है। जीव अपनी इच्छा से ही शुभाशुभ कर्म करता है, नया जन्म पाता है, और तदनुसार वैसे ही सजीव-निर्जीव पदार्थों का संयोग मिलता है। इसीलिए मुनि से अप्रमत्त रहने का कहा गया है। सारा जगत् कर्मविपाक के अधीन है, यह जानकर मुनि दुःख को पाकर दीन न हो, और सुख को पाकर विस्मित न हो। दोनों ही स्थितियों में समभावपूर्वक रहे। इस प्रकार समग्र जगत् के जीवों की कर्म-परतंत्रता जानकर भी आत्मा चाहे तो अप्रमत्त एवं समभावस्थ रहकर स्वतंत्र रह सकती है। यह सत्य है कि आत्मा उन इच्छाओं या वासनाओं-कामनाओं को समझपूर्वक, सम्यग्दृष्टिपूर्वक नहीं करती। आत्मा की स्वाभाविक गति-मति अग्निशिखा की भांति ऊर्ध्वगामिनी है, परन्तु स्व-भाव के विरुद्ध इच्छाएँ-वासनाएँ या विकल्प उठते हैं, तब उसकी गति-मति अधोगामिनी हो जाती है, कर्मपुद्गल उसे जकड़ लेते हैं। उसकी स्वतंत्र अध्यात्म विकास की ऊर्ध्वगति को रोक देते हैं। आत्म-विस्मृति या जैनपारिभाषिक शब्दानुसार प्रमाद के कारण जब आत्मा अपनी मौलिक मर्यादाओं से बाहर भटक जाती है, तब वह भावकर्म-द्रव्यकर्म के वशीभूत हो जाती है। कर्मों पर शासन करने के बदले, कर्म उस पर शासन करने लग जाते हैं। समयसार कलश में कहा गया हैजहाँ तक जीव की निर्बलता है, वहाँ तक कर्म का जोर चलता है।२ । जीव स्वतंत्र है या परतंत्र ? सापेक्ष समाधान ___ जीव स्वतंत्र है या परतंत्र ? यह प्रश्न जब कर्मविज्ञान-मर्मज्ञों से पूछा गया तो उन्होंने अनेकान्त (सापेक्षवाद) की शैली में उत्तर दिया-जीव स्वतंत्र भी है, परतंत्र भी। यह सापेक्ष कथन है। जीव चैतन्यवान् है। जीव १. दुःखं प्राप्य न दीनः स्यात्, सुखं प्राप्य न विस्मितः। मुनिः कर्मविपाकस्य जानन् परवशं जगत् ॥' -जिनवाणी कर्म सिद्धान्त विशेषांक में प्रकाशित लेख से पृ. १२२ २. समयसार ३१७; कलश १९८ (पं. जयचन्दजी) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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