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________________ कर्म का परतंत्रीकारक स्वरूप ४२१ वाले, उसे असंयम, प्रमाद, मिथ्यात्व, कषाय एवं भोग की ओर ले जाने वाले हैं। आत्मिक विकास इनसे नहीं हो सकता ।' आत्मिक विकास होता हैतप, त्याग, संयम और अप्रमाद से। घाती कर्म भी आत्मा को तप त्यागादि की ओर प्रेरित नहीं कर सकते शेष चार घाती कर्म हैं- ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तरायकर्म। इनमें से भी कोई कर्म ऐसा नहीं है, जो आत्मा को तप, त्याग एवं संयम की ओर ले जा सके; प्रत्युत, ये कर्म आत्मा को असंयम, भोग, प्रमाद, कषाय एवं मिथ्यात्व में फंसाकर उसके ज्ञानादि स्वभाव को बाधित, आवृत एवं कुण्ठित करते हैं। ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीयकर्म आत्मा की ज्ञान और दर्शन की शक्ति को आवृत करते हैं, मोहनीयकर्म आत्मा की दृष्टि और चारित्र की शक्ति को मूर्च्छित, बाधित एवं कुण्ठित करता है और अन्तरायकर्म आत्मा की दानादि शक्तियों को अवरुद्ध करता है। मिथ्यात्वादि में डूबे हुए भी आत्मा में तप त्यागादि की साधना - भावना क्यों ? निष्कर्ष यह है कि यद्यपि आठ प्रकार के कर्मों में से कोई भी कर्म आत्मा को तप, त्याग एवं संयम की ओर ले जाने में समर्थ नहीं है तथापि कर्मों के कारण मिथ्यात्व, असंयम (अत्याग - भोग), प्रमाद एवं कषाय में आकण्ठ डूबा हुआ जीव तप, त्याग, संयम-नियम की साधना के लिए क्यों प्रेरित होता है? उसके अन्तःकरण में तप, त्याग एवं संयम की भावना क्यों जागती है? इसका कारण कर्म नहीं, आत्मा ही है; आत्मा का स्वभाव ही स्वयमेव कारण है। आत्मा में विशुद्ध चैतन्य शक्ति ऐसी है, जो इन विजातीय तत्त्वों - आत्मबाह्य पदार्थों से सतत संघर्ष करती है। वही चैतन्यशक्ति जीव को परमविशुद्ध परमात्मअवस्था तक ले जाना चाहती है। वह आत्मा के सहज सच्चिदानन्द स्वरूप की अवस्था है। प्रत्येक आत्मा में वह चैतन्य की अन्तर्ज्योति सतत जलती रहती है, वह कभी बुझती नहीं । उसी का प्रकाश जीव को तप, त्याग एवं संयम आदि की ओर ले जाता है। त्याग, तप, संवर, संयम आदि किसी कर्म (अचेतन) की प्रेरणा से नहीं होते, ये होते हैं - सचेतन आत्मा की प्रेरणा से । २ अचेतन की प्रेरणा अपने स्वभाव की ओर ले जाती है। कर्म अचेतन है और उससे प्रेरित व्यक्ति असंयम, भोग आदि में आसक्त हो जाता है। कर्म-प्रेरणा से जीव असंयम - भोग- परतंत्र ही होता है। इसके बावजूद भी आत्मा में अन्तर्निहित शुद्ध चैतन्य की ज्योति त्याग, परमार्थ एवं संयम की १. देखें - कर्मवाद में इसका विवेचन पृ. १३८ २. देखें - कर्मवाद पृ. १३८-१३९ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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