SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 440
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४१८. कर्म-विज्ञान : कर्म का विराट् स्वरूप (३) मिथ्यात्व, अज्ञान और कषाय परिणामरूप कर्ममल ज्ञान दर्शन - चारित्र - स्वरूप शुद्ध स्वच्छ आत्मा को मलिन कर देते हैं ।" परमात्म प्रकाश में भी कहा गया है कि "कर्म आत्मा को परतंत्र करके तीनों लोकों में परिभ्रमण कराता है।" धवला में भी कहा गया है कि "कर्म आत्मा की ज्ञानादि स्वाभाविक शक्तियों का घात करके इस प्रकार परतंत्र कर देते हैं कि आत्मा विभावरूप से परिणमन करने लगती है ।" " वस्तुतः जीवन के सभी महत्वपूर्ण अंग कर्म के साथ सम्बद्ध और श्लिष्ट हैं। देखा जाए तो मनुष्य का वर्तमान अतीत से बँधा हुआ है। न वह सम्यग्ज्ञान प्राप्त करने में स्वतंत्र है, न सम्यदृष्टि उपलब्ध करने में स्वतंत्र है। और तो और चारित्र का विकास एवं अपनी आत्मशक्तियों का उपयोग करने में भी वह स्वतंत्र नहीं है। न ही वह शरीर और शरीर से सम्बन्धित विभिन्न स्थितियों को स्वेच्छानुसार मोड़ने या बनाने में स्वतंत्र है। वह कर्म की बेड़ियों में जकड़ा हुआ, पकड़ा हुआ बंदी है। कर्मों के हाथ की वह कठपुतली है । वही मदारी बनकर बंदर की तरह जीव को मनचाहा नचाता है। कर्माधीन बना हुआ संसारी छद्मस्थ जीव अपने आप को भूल जाता है। वह स्वयं को कर्मोपाधिक मानकर संसार की भूलभुलैया में फंस जाता है। आत्मा अपने स्वभाव - स्वगुणों का विकास करने में स्वतंत्र है मूल में आत्मा (जीव ) का स्वभाव है - चैतन्य, ज्ञानघन, आनन्द, नित्य, दर्शनरूप, शक्तिमय । आत्मा सत्-चित्-आनन्द-स्वरूप है, अनन्त - ज्ञान-दर्शन-आनन्द- शक्तिमय है। आत्मा अपने चैतन्य का, अपने ज्ञानदर्शन का, अपने आनन्द का और अपनी आत्मशक्ति का विकास करने में स्वतंत्र है। आध्यात्मिक दिशा में जितना भी विकास होता है या हुआ है; उसमें जीव (आत्मा) का स्वतंत्र विकास स्पष्टतया परिलक्षित होता है। आत्मा अपने निजी गुणों का, अपने स्वभाव का विकास करने में पूर्ण स्वतंत्र है। बल्कि यों कहना चाहिए कि आत्मा (जीव ) के चैतन्य, ज्ञान- दर्शन, १. (क) समयसार गा. १६०-१६३ (ख) परमात्म प्रकाश गा. १ / ६६ (ग) तत्त्वार्थ वार्तिक ५/२४/९ पृ. ४८८ (घ) धवला पु. १५ सू. ३४ (ङ) तत्त्वार्थ वार्तिक १/४/१७ पृ. २६ (च) भगवती आराधना विजयोदया टीका गा. ३८ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy