SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 431
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कर्म का परतंत्रीकारक स्वरूप ४०९ को अंगीकार करता है, तो समझा जाता है कि वह कामोद्रेकवश हीनस्थान अंगीकार करके अत्यन्त पराधीन हो चुका है, इसी प्रकार संसारी जीव भी काम-क्रोधादि कषायवश हीनस्थान को अंगीकार करके कर्म-परतंत्र (पराधीन) हो जाता है।" संसारी जीव का शरीर ही हीनस्थान हीनस्थान क्या है ? इस पर प्रकाश डालते हुए कहा गया है कि "संसारी जीव का शरीर ही हीनस्थान है, क्योंकि यह शरीर ही दुःख का (कर्मोत्पत्ति का कारण है। जैसे-कारागर दुःखप्रद होने के कारण हीनस्थान माना जाता है, उसी प्रकार कर्मों के कारण प्राप्त यह शरीर भी हीनस्थान आत्मा शरीर से सम्बद्ध होने से पुनः पुनः कर्माधीन - आत्मा यदि स्वतंत्र होता, कर्माधीन न होता तो वह मूत्र-पुरीषभण्डाररूप इस अतीव घृणित अपावन शरीर को अपना आवास-स्थल न बनाता। जब तक आत्मा कर्माधीन होता है तब तक उसे कर्म-परतंत्र (कर्म के वशीभूत) होकर शरीर में रहना पड़ता है। वह फिर मोहकर्मवश इस पर आसक्त होता है, शरीर और शरीर से सम्बद्ध सजीव-निर्जीव 'पर'-पदार्थों के प्रति राग-द्वेषाविष्ट या कषायाविष्ट होता है, अतः पुनः पुनः कर्मबन्धन से बद्ध होकर परतंत्र बनता जाता है। इससे यह सिद्ध हो जाता है कि कर्मों के द्वारा जीव बार-बार परतंत्र और विवश कर दिया जाता है। तत्त्वार्थ राजवार्तिक में बताया गया है, कि वह (कम) आत्मा को परतन्त्र करने में मूल कारण है।' आप्त परीक्षा में भी कहा गया है-'कर्म जीव को परतंत्र करने वाले हैं। . . शरीर को लेकर ही आत्मा कर्म-परतन्त्र होती है क्यों और कैसे? निष्कर्ष यह है कि जीव की कर्म-परतंत्रता का आदि-बिन्दु शरीर है। आत्मा के साथ शरीर का संयोग होने से ही कर्म आत्मा को प्रभावित कर लेते हैं। जहाँ शरीर है, वहाँ वीतराग न होने तक राग-द्वेष का परिणाम आत्मा के साथ जुड़ा रहता है। राग-द्वेष की धारा सतत प्रवाहित होती रहने से आत्मा में कर्मयोग्य पुद्गल आकर्षित होते हैं, कर्म-परमाणु जुड़ते १. (क) आप्त परीक्षा-पृ.१ - (ख) महाबन्धों भा. १ की प्रस्तावना (पं. सुमेरुचन्द्र दिवाकर शास्त्री) पृ. ५४-५५ २. महाबन्धो भा. १ प्रस्तावना (पं. सुमेरुचन्द्र दिवाकर) पृ. ५५ ३. तत्त्वार्थ राजवार्तिक ५/२४/९/४८८/२१ "तदात्मनोऽस्वतंत्रीकरणे मूल कारणम्।" ४. आप्त परीक्षा ११४-११५/२४६-२४७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy