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________________ ३९० कर्म-विज्ञान : कर्म का विराट् स्वरूप (३) . प्रत्येक प्राणी के न चाहते हुए भी उसके साथ 'कार्मण शरीर नामक एक ऐसा साधन प्रदान कर रखा है, जिसके द्वारा उस-उस प्राणी के द्वारा किये गये अच्छे या बुरे समस्त कर्मों के संस्कार बिना किसी प्रयत्न के स्वतः उस पर अंकित होते रहते हैं।' बाहर का यह स्थूल औदारिक शरीर रहे या न रहे, कार्मण शरीर तो मरते-जीते, परलोक जाते तथा विविध गतियों और योनियों में रहते हुए हर समय प्राणी के साथ रहता है और उसकी समग्र कार्यवाही का सूक्ष्म निरीक्षण-परीक्षण करता रहता है। यह जड़ (पुद्गल) होते हुए भी चेतनवत् है अथवा चिदाभासी है। कार्मण शरीर : कार्य भी है, कारण भी चेतना की तमाम प्रवृत्तियों के प्रति यह कार्य भी है और कारण भी है। यह (कार्मण शरीर) कर्म के संस्कारों को ग्रहण करके स्थित रहता है। इस कारण यह उसका कार्य भी है और यथासमय फलोन्मुख होकर जीव को पुनः उसी प्रकार के कर्म करने के लिए उकसाता है। चाहते या न चाहते हुए भी प्राणी को उसकी प्रेरणा से कर्म करना पड़ता है। इस कारण यह उसकी समस्त प्रवृत्तियों का कारण भी है। कार्मण शरीर भी उपचार से द्रव्यकर्म यद्यपि चेतन-प्रवृत्ति को 'कम' कहा जाता है, तथापि उसका कार्य तथा कारण होने से कार्मण शरीर को भी उपचार से 'कम' कहा जाता है। सर्वार्थसिद्धि में आचार्य पूज्यपाद ने 'समस्त शरीरों की उत्पत्ति के मूल कारण होने से कार्मणशरीर को कर्म (द्रव्यकम) कहा है। विशेषता इतनी है कि चेतन प्रवृत्ति की भांति यह सीधा भावात्मक न होकर परमाणुओं से निर्मित होने के कारण द्रव्यात्मक है, इसलिए इसका द्रव्यकर्म नाम सार्थक है। प्रवृत्ति और संस्कारों का चक्र, कार्मण शरीर द्वारा श्री जिनेन्द्रवर्णी के शब्दों में-चेतन की कर्मप्रवृत्ति से कार्मण शरीर पर संस्कार अंकित होते हैं और कुछ काल के बाद उस पर अंकित संस्का जागृत होते हैं। उन जागृत संस्कारों की प्रेरणा से जीव पुनः कर्मों में प्रवृत्र १. कर्मरहस्य पृ. १२४ २. कर्म रहस्य से पृ. १२५ ३. वही, पृ. १२५ ४. 'सर्व-शरीर-प्ररोहण-बीजभूतं कार्मण शरीरं कर्मेत्युच्यते।' -सर्वार्थसिद्धि २/५/१८२/ ५. कर्मरहस्य से सारांश पृ. १२६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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