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________________ कर्म : संस्कार रूप भी, पद्ल रूप भी ३८७ कर्ता (मैं) और कार्य (बोलना, सुनना, सोचना आदि) स्पष्टतः अलग-अलग प्रतीत होते हैं। अतः यह स्वाभाविक क्रिया नहीं है। परन्तु जहाँ आत्मा के द्वारा जानने-देखने की क्रिया होती है, वह स्वाभाविक है, क्योंकि जानना देखना आत्मा का अपना स्वभाव है, अपनी क्रिया है। इसलिए नियम यह हुआ कि जहाँ आत्मा जानने-देखने की अपनी स्वाभाविक क्रिया से हटकर मन, वचन या काय से संयुक्त होकर कोई भी क्रिया करती है, वहाँ आत्मा के लिए बन्धन होता है; वही बंधन मनरूप, वचनरूप और कायरूप कर्म बनता है। क्रिया-प्रतिक्रिया का नियम भी कर्मसंस्काररूप. निष्कर्ष यह है कि सांसारिक जीवों की प्रत्येक क्रिया या प्रवृत्ति के साथ प्रतिक्रिया-स्वरूप राग, द्वेष, कषायादि आते हैं और वे एक संस्कार छोड़ जाते हैं। वे ही कर्म के कारण हैं। उसी संस्कार को विभिन्न आस्तिक दार्शनिकों ने कर्म के अर्थ में प्रतिपादित किया है। . उनका आशय यह है कि प्रत्येक क्रिया, प्रवृत्ति या कार्य (संयोगज होने पर) आत्मा के लिए कर्म-बन्ध का कारण होता है। इसे स्पष्टतः समझने के लिए क्रिया-प्रतिक्रिया के सिद्धान्त को समझना आवश्यक है। क्रिया-प्रतिक्रिया का नियम भी कर्म का नियम है। क्रिया की पुनः पुनः प्रतिक्रिया प्राणी जो कुछ भी क्रिया या प्रवृत्ति करता है, उसकी प्रतिक्रिया होती है। जो कुछ भी किया जाता है, बोला जाता है या सोचा जाता है, वह एक क्रिया या प्रवृत्ति है। प्रवृत्ति समाप्त हो जाती है, परन्तु उसकी प्रतिक्रिया समाप्त नहीं होती। घंटे पर एक बार किसी ने डंडा मार कर ध्वनि की। वह ध्वनि समाप्त हो गई; परन्तु उसकी प्रतिध्वनि समाप्त नहीं हुई। प्रतिध्वनि रह गई। बहुत गहरे कूप में किसी ने झांक कर कुछ भी बोला, उसकी ध्वनि हुई, किन्तु ध्वनि समाप्त होने के साथ ही प्रतिध्वनि प्रारम्भ हो गई। वह लम्बे समय तक चली। ध्वनि छोटी होती है, प्रतिध्वनि लम्बी। इसी प्रकार क्रिया छोटी है, प्रतिक्रिया बड़ी। क्योंकि क्रिया की प्रतिक्रिया, अथवा प्रवृत्ति की प्रतिप्रवृत्ति या ध्वनि की प्रतिध्वनि की तरह पुनः पुनः आवर्तन होता रहा एक ही क्रिया की अनेक बार प्रतिक्रिया - अधिकांश मनुष्य एक बार जब देखने आदि की क्रिया करते हैं और समझ लेते हैं कि वह समाप्त हो गई, किन्तु सच्चे माने में वह समाप्त नहीं १. जैनयोग से सारांश पृ. ३७, ३९ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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