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________________ ३७६ . कर्म-विज्ञान : कर्म का विराट् स्वरूप (३) पुद्गल में कर्मरूप में परिणत होने की योग्यता है इसलिए कर्म-पुद्गल को द्रव्यकर्म का उपादान कारण माना जाता है, किन्तु जब तक जीव' में भावकर्म विद्यमान न हो, तब तक पुद्गल द्रव्य का कर्मरूप में परिणत होना असम्भव है। इस अपेक्षा से भावकर्म द्रव्यकर्म का निमित्त कारण है। इसी प्रकार द्रव्यकर्म भी भावकर्म का निमित्त कारण है। निष्कर्ष यह है कि द्रव्यकर्म और भावकर्म का जो कार्य-कारणभाव-सम्बन्ध है, वह निमित्तनैमित्तिक रूप है, उपादान-उपादेयरूप नहीं। भावकर्म की उत्पत्ति कैसे : एक विश्लेषण यद्यपि संसारी आत्मा की प्रवृत्ति या क्रिया को भावकर्म कहा गया है। परन्तु जैनकर्मविज्ञान-मर्मज्ञों ने राग और द्वेष इन दोनों को ही मूल में (भाव-) कर्म का बीज कहा है। साथ ही कर्म (भावकम) की उत्पत्ति मोह (मोहनीय कम) से मानी है। अतः जैसे राग-द्वेष के साथ (भाव) कर्म का कार्य-कारण भाव माना जाता है, वैसे ही तृष्णा और मोह का भी परस्पर कार्यकारण-भाव बताया गया है। जैसे-तृष्णा से मोह और मोह से तृष्णा पैदा होती है, वैसे ही राग-द्वेष से कर्म और कर्म से राग-द्वेष उत्पन्न होता है। आत्मा के क्रोध, मान, माया और लोभ इन चार कषायों रूपी आभ्यन्तर परिणामों को भी भावकर्म कहा गया है। इन चार कषायों का अन्तर्भाव भी राग-द्वेष में हो जाता है। इन चारों में से माया (कपट) और लोभ को राग का तथा क्रोध और मान को द्वेष का बोधक समझना चाहिए। मोह (मोहनीय कम) में राग, द्वेष, मोह (आसक्ति) तथा क्रोधादि चारों कषाय समाविष्ट हो जाते हैं। मिथ्यात्व (अज्ञान), अविरति (असंयम), प्रमाद एवं कषाय ये चारों मोहकर्म के ही अन्तर्गत हैं, तथा आत्मा के वैभाविक आन्तरिक परिणाम हैं, इसलिए ये भी भावकर्म हैं।' योग और कषाय : दोनों ही आत्मा की प्रवृत्ति के दो रूप संसारी आत्मा सदैव सशरीर होती है, इसलिए उसकी प्रवृत्ति मन, वचन, काया के अवलम्बन बिना नहीं हो सकती। मन-वचन-काया से होने १. आत्म मीमांसा (पं. दलसुख मालवणिया) पृ. ९७ २. आत्म मीमांसा (पं. दलसुख मालवणिया) से पृ. ९८ ३. (क) 'रागो य दोसो वि य कम्मबीयं।'-उत्तराध्ययन अ. ३२ गा. ७ (ख) कम्मं च मोहप्पभवं वयन्ति।- वही, गा.७ (ग) 'एमेव मोहाययणं खु तण्हा, मोहं च तण्हाययणं वयंति।' -वही, अ. ३२, गा.६ (घ) ज्ञान का अमृत (पं. ज्ञानमुनि जी) से पृ. २० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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