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________________ ३७४ . कर्म-विज्ञान : कर्म का विराट् स्वरूप (३) . . यह कार्य-कारणभाव मुर्गी और अण्डे के परस्पर कार्यकारणभाव के समान है। मुर्गी से अण्डा उत्पन्न होता है, इसलिए मुर्गी कारण है और अण्डा कार्य; किन्तु यह भी तथ्य है कि जिस प्रकार अण्डा मुर्गी से उत्पन्न होता है, उसी प्रकार मुर्गी भी तो अण्डे से ही उत्पन्न हुई है। अतः दोनों में कार्य-कारणभाव तो है, किन्तु दोनों में पहले कौन, पीछे कौन ? यह नहीं कहा जा सकता। संतति की अपेक्षा से इनका पारस्परिक कार्यकारण भाव अनादि है।' इसी प्रकार भावकर्म से द्रव्यकर्म उत्पन्न होता है, इस नाते भावकर्म को कारण और द्रव्यकर्म को कार्य माना जाता है, किन्तु भावकर्म की उत्पत्ति भी द्रव्यकर्म के अभाव में नहीं हो सकती। इस कारण' द्रव्यकर्म भावकर्म का कारण और भावकर्म उसका कार्य होता है। इस प्रकार मुर्गी और अण्डे के समान भावकर्म और द्रव्यकर्म में भी संतति की अपेक्षा पारस्परिक अनादि कार्य-कारणभाव सिद्ध होता है। दोनों में बीजांकुरवत् कार्य-कारणभाव कतिपय कर्म-विज्ञान-मर्मज्ञों के इन दोनों का बीजांकुर की तरह परस्पर कार्य-कारणभाव-सम्बन्ध माना है। अर्थात्-जैनदर्शन-सम्मत द्रव्यकर्म (अचेतनप्रधान) और भावकर्म (चेतन-प्रधान) दोनों में बीजांकुरवत्. कार्य-कारणभाव है। जैसे-बीज से वृक्ष और वृक्ष से बीज बनता है, उसमें किसी को भी पहले या पीछे नहीं कहा जा सकता, वैसे ही द्रव्यकर्म और भावकर्म में भी किसी के पहले या पीछे होने का निर्णय नहीं किया जा सकता। इनमें संतति की अपेक्षा से पारस्परिक अनादि कार्यकारण भाव है। संतति की अपेक्षा से द्रव्य-भावकर्म का परस्पर अनादि कार्यकारणभाव यद्यपि संतति की अपेक्षा से भांवकर्म और द्रव्यकर्म का पारस्परिक कार्य-कारणभाव अनादि है, तथापि व्यक्तिशः विचार करने पर ज्ञात होता है कि प्रत्येक भावकर्म के लिए उसका द्रव्यकर्म पूर्व होगा और प्रत्येक द्रव्यकर्म के लिए उसका भावकर्म भी पूर्व होगा। अर्थात्-किसी एक द्रव्यकर्म का कारण कोई एक भावकर्म ही होता होगा, और किसी एक भावकर्म का भी कारण कोई एक द्रव्यकर्म होता होगा। अतः इनमें पूर्वापरता का निश्चय किया जा सकता है। कारण यह है कि किसी एक १. आत्म-मीमांसा (प. दलसुख मालवणिया) से पृ. ९६ २. आत्ममीमांसा (पं. दलसुख मालवणिया) से पृ. ९६ ३. जैन कर्म सिद्धान्त : तुलनात्मक अध्ययन (डॉ. सागरमल जैन) से पृ. १३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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