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________________ ३७० कर्म-विज्ञान : कर्म का विराट् स्वरूप (३) 'तत्त्वार्थसार' में भी इसी लक्षण का समर्थन करते हुए कहा गया हैजीव के रागद्वेषादि विकार भावकर्म कहलाते हैं और रागद्वेषादि भावकर्मो के निमित्त से आत्मा के साथ बंधने वाले अचेतन (कार्मण) पुद्गल परमाणु द्रव्यकर्म कहलाते हैं। पं. ज्ञानमुनिजी के अनुसार-"जीव के मानस में जो विचारधारा चलती है, संकल्प-विकल्प होते हैं, क्रोधादि कषाय आदि मनोभाव उत्पन्न होते हैं; किसी को लाभ-हानि पहुँचाने का मानसिक आयोजन चलता है, फलाकांक्षा होती है, ये सब मानसिक विकार 'भावकम' में परिगणित होते हैं। उन मानसिक विकारों के आधार पर जीव के जो पार्श्ववर्ती परमाणु आत्मा के साथ जुड़ते हैं, आत्म-प्रदेशों से सम्बन्ध स्थापित करते हैं, उन्हें 'द्रव्यकर्म के अन्तर्गत माना जाता है। जीवों के सुख-दुःखादि अनुभवों अथवा शुभाशुभ कर्म-संकल्पों के लिए कर्म-परमाणु भौतिक कारण हैं और उनके मनोभाव चैतसिक कारण हैं। जैनकर्मविज्ञान के अनुसार कर्म-परमाणुओं की प्रकृति का निर्धारण मनोविकारों के आधार पर और मनोविकारों की प्रकृति का निर्धारण कर्मपरमाणुओं के आधार पर होता है। जिनेन्द्रवर्णी के शब्दों में-"कर्म दो प्रकार का होता है-द्रव्यरूप और भावरूप। गमनागमन (संकोच-विकासादि) रूप क्रिया द्रव्यकर्म है और परिणमन रूप पर्याय भावकर्म है।.....प्रयोजनवशात् पुद्गल को द्रव्यात्मक पदार्थ और जीव को भावात्मक पदार्थ माना गया है। इसलिए पुद्गल की पर्याय द्रव्यकर्म और जीव की पर्याय भावकर्म है। जैनशास्त्रों में बताया गया है-पुद्गल की पर्याय क्रियाप्रधान है और जीव की भावप्रधान।" दोनों क्रमशः योग और उपयोग से सम्बद्ध होने के कारण दोनों कर्मों का सम्बन्ध जीव के साथ है। कर्म और प्रवृत्ति में कार्य-कारण भाव को लेकर द्रव्य-भाव कर्म अनादिकालीन कर्ममलों से युक्त सांसारिक जीव रागादि कषायों से संतप्त होकर अपने मन, वचन और काया की प्रवृत्तियों या क्रियाओं से कर्मवर्गणा के पुद्गल-परमाणुओं को आकर्षित कर लेता है। मन, वचन, काया की प्रवृत्ति तभी होती है, जब जीव के साथ कर्म सम्बद्ध हो, इसी १. तत्वार्थसार ५/२४/९ २. ज्ञान का अमृत (पं. ज्ञानमुनिजी) से पृ. १० ३. जैन कर्म सिद्धान्त : एक तुलनात्मक अध्ययन (डॉ. सागरमल जैन) से पृ. १३ ४. कर्म-सिद्धान्त (जिनेन्द्रवर्णी) पृ. ४३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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