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________________ ३६४ कर्म-विज्ञान : कर्म का विराट् स्वरूप (३) शुद्धता को प्रभावित, आवृत एवं कुण्ठित कर देती है। उसके नाम, कर्म के बदले, उन-उन दर्शनों और धर्मो ने भले ही भिन्न-भिन्न दिये हों। जैसे किबौद्ध दर्शन में उसे वासना और अविज्ञप्ति कहा गया है। " वैदान्तदर्शन में उसी को माया और अविद्या कहा है । " सांख्य दर्शन में उसको प्रकृति या संस्कार कहा गया है। ' योगदर्शन में उसके लिए क्लेश, कर्म, आशय आदि शब्दों का प्रयोग हुआ है । " न्यायदर्शन में प्रयुक्त अदृष्ट और संस्कार शब्द भी इसी अर्थ के द्योतक हैं। " वैशेषिक दर्शन में 'धर्माधर्म' शब्द भी जैनदर्शन प्रयुक्त कर्म शब्द का समानार्थक है । " शैवदर्शन का 'पाश' शब्द भी जैनदर्शन में प्रयुक्त कर्म शब्द का पर्यायवाचक है। मीमांसा दर्शन में अपूर्व शब्द भी कर्म के अर्थ में प्रयुक्त है। " दैव, भाग्य, पुण्य-पाप आदि अनेक शब्द ऐसे हैं, जिनका प्रयोग सामान्यता सभी दर्शनों में हुआ है। जैनागमों में 'कर्म' के बद्दले कहीं कर्मरज, कर्ममल आदि शब्द भी मिलते हैं। " भारतीय दर्शनों में चार्वाकदर्शन (लोकायतिक) ही ऐसा दर्शन है, जिसका कर्मवाद में विश्वास नहीं है; क्योंकि वह आत्मा की स्वतंत्र सत्ता ही नहीं मानता। इसलिए वह कर्म और उसके द्वारा होने वाले स्वर्ग-नरक, तिर्यञ्चलोक एवं मनुष्यलोक आदि परलोक और पुनर्जन्म को नहीं मानता। १. अभिधर्म कोष, परिच्छेद ४ २. ब्रह्मसूत्र शांकरभाष्य २/१/१४ ३. (क) सांख्यकारिका (ख) सांख्य तत्त्व - कौमुदी ४. (क) योगदर्शन (व्यासभाष्य) १-५, २-३; २-१२; २-१३ (ख) योगदर्शन भास्वती तथा तत्त्ववैशारदी (क) न्यायभाष्य १/१/२ (ख) न्यायसूत्र १/१ / १७, ४/१/३-९ (ग) न्यायमंजरी पृ. ४७१ ५. ६. एवं च क्षणभंगित्वात्, संस्कारद्वारिकः स्थितः । कर्मजन्य-संस्कारो, धर्माधर्मगिरोच्यते ॥ ७. (क) मीमांसा सूत्र, शाबरभाष्य २/१/५ (ख) तन्त्रवार्तिक २ / १/५ (ग) शास्त्रदीपिका २/१/५ पृ. ८० ८. (क) अदृष्ट कर्म - संस्काराः पुण्यापुण्ये शुभाशुभौ । धर्माधमौ तथा पाशः पर्यायास्तस्य कीर्तिताः ॥ (ख) उम्मुं च पासं इह मच्चिएहिं (ग) तया धुणइ कम्मरयं । (घ) स निद्धणे धुत्तमलं पुरे कडं । Jain Education International - न्यायमंजरी पृ. ४७२ - शास्त्रवार्ता- समुच्चय १०७ - आचारांग १/३/२ - दशवै. ४/२० - दशवै. अ. ७ गा. ५७ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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