SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 379
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कर्म-शब्द के विभिन्न अर्थ और रूप ३५७ वैयाकरणों ने कर्म-कारक के अर्थ में कर्म शब्द का प्रयोग किया है। और कर्म की परिभाषा की है - कर्ता के लिए जो अत्यन्त इष्ट हो, अर्थात्कर्ता अपनी क्रिया के द्वारा जिसे प्राप्त करना चाहता है, वह कर्म है। " दूसरे शब्दों में- जिस पर कर्ता के व्यापार का फल गिरता है, वह कर्म है। वैदिक परम्परा में वेदों से लेकर ब्राह्मण (ग्रन्थ) काल तक यज्ञ-याग आदि नित्य नैमित्तिक क्रियाओं को 'कर्म' कहा गया है। अर्थात् - 'वैदिक काल के प्रसिद्ध अश्वमेध, नरमेध, गोमेध आदि, पुत्रकाम, स्वर्गकाम, कारीरी आदि वेद - विहित यज्ञों के लिए जो क्रियाएँ की जाती हैं, तथा उनके सम्पादन के लिये जो भी विधि-विधान निश्चित किये गये हैं, वे सब 'कर्म' माने गए हैं। वैदिक युग में यह माना जाता था कि इन यज्ञादि कर्मों का अनुष्ठान देवों को प्रसन्न करने के लिए करना चाहिए ताकि देव प्रसन्न होकर - उसके कर्ता की मनोकामना पूर्ण कर सकें। स्मार्त-विद्वानों ने ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चार वर्णों तथा ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ एवं संन्यास, इन चार आश्रमों के लिए नियत या विहित कर्त्तव्यों एवं मर्यादाओं के पालन करने को 'कर्म' कहा है।' पौराणिकों के मत में व्रत, नियम आदि धार्मिक क्रियाएँ 'कर्म' कहलाती है। भगवद्गीता में कर्मवाद केवल मीमांसकों द्वारा प्रतिपादित यज्ञ-याग आदि क्रियाकाण्ड़ों के अर्थ में अथवा वर्णाश्रम धर्म के अनुसार किये जाने वाले स्मार्त-कार्यों के ही संकुचित अर्थ के प्रयुक्त नहीं हुआ है, अपितु फलाकांक्षारहित होकर अनासक्तभाव से या समर्पणभाव से कृत कर्म तथा सहजकर्म, ज्ञानयुक्तकर्म, कर्मकौशल आदि सभी प्रकार के क्रिया- व्यापारों के व्यापक अर्थ में 'कर्म' शब्द प्रयुक्त हुआ है । " बौद्ध दार्शनिकों ने भी शारीरिक, वाचिक और मानसिक, इन तीनों प्रकार की क्रियाओं के अर्थ में 'कर्म' शब्द का प्रयोग किया है। तथापि वहाँ केवल 'चेतना' को इन क्रियाओं में प्रमुखता दी गई है। चेतना को 'कर्म' • 'कर्तुरीप्सिततमं कर्म' (क) आत्ममीमांसा (पं. दलसुख मालवणिया ) (ख) ज्ञान का अमृत (पं. ज्ञानमुनिजी) मनुस्मृति धर्मनिर्णयसिन्धु आदि (क) गीता रहस्य पृ. ५५-५६ (ख) भगवद्गीता अ. ५ श्लो. . ८-११ Jain Education International - पाणिनिकृत अष्टाध्यायी १/४/४९ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy