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________________ . ३४४ कर्म-विज्ञान : कर्मवाद का ऐतिहासिक पर्यालोचन (२) कर्ममुक्ति की कुछ भी साधना करने की जरूरत ही नहीं है, न ही उस विषय में चिन्तन-मनन, श्रवण करने की आवश्यकता है, फिर तो कर्म के भरोसे बैठे रहना होगा-कर्म में साधना करना लिखा होगा, अमुक बोलना, सुनना या करना लिखा होगा, वैसा ही हो जाएगा। परन्तु यह मिथ्या धारणा है। इसी मिथ्या धारणा के सहारे अनेक लोगों ने अपनी गरीबी, बीमारी, दुरवस्था, विपत्ति, अज्ञान आदि में वृद्धि की है। कर्मवाद की इस गलत धारणा ने भाग्यवाद को प्रश्रय दिया। मनुष्य भाग्य के भरोसे बैठा रहकर अपने कर्मों को कोसता रहता है। वह नहीं समझता कि सद्भाग्य या दुर्भाग्य भी तो पूर्वकृत शुभ या अशुभ पुरुषार्थ का फल है। परन्तु कर्मवाद के रहस्य से अनभिज्ञ लोग अपने पुरुषार्थ को भूलकर मानव जैसा कर्म किया है, या करता है, वैसा ही फल भोगना पड़ेगा, इस एकान्त धारणा को मन में बिठा लेते हैं। कर्मवाद को एकान्ततः उत्तरदायी मानकर अज्ञ लोग अपने पुरुषार्थ का दीप स्वयं बुझा देते हैं। और जाने-अनजाने इस प्रकार के गहन अन्धकार में भटक जाते हैं कि "मेरा जैसा कर्म है, तदनुसार ही फल प्राप्त होगा। मैं तो असहाय हूँ, कर्मपरवश हूँ, मैं कुछ नहीं कर सकता।" इसलिए जैनदर्शन साधना का मूलसूत्र यही बताता है कि जो कर्म किया है, अथवा कर रहे हो, उसका फल भी कर्मानुसार और शीघ्र ही प्रायः नहीं मिलता। मनुष्य साधना में पुरुषार्थ करने में स्वतंत्र है। अगर उसकी चेतना जाग जाए, अपने स्वरूप और शक्ति को भलीभांति समझने लग जाए, तथा उसे कर्ममुक्ति का शुद्ध मार्ग मिल जाए तो कोई भी शक्ति उसे आगे बढ़ने से रोक नहीं सकती। वह आत्मा को कर्मों से पूर्ण अनावत करने में सक्षम हो सकता है। फिर आत्मा की शक्ति कर्म के सभी बन्धनों को तोड़कर मुक्ति की ओर अग्रसर हो सकती है, परतंत्रता की बेड़ियों को तोड़कर पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त कर सकती है। ___ अतः कर्मवाद के साथ लगी हुई इस भ्रान्त धारणा को मन से निकाल फैकिये कि कर्म ही सब कुछ है। कर्म भी एक माध्यम है, जो अपनी सीमा में प्रत्येक अजागृत प्रमत्त प्राणी को प्रभावित करता है। अगर कर्म ही सब कुछ होता तो भोगों में आकण्ठ डूबे हुए धन्ना एवं शालिभद्र जैसे लौकिक ऋद्धिसम्पन्न व्यक्ति कभी उनका त्याग नहीं कर सकते थे, न ही कर्ममुक्ति के लिए इतनी कठोर तप-संयम की साधना स्वीकार कर सकते थे। क्योंकि कर्म स्वयं अचेतन है, वह स्वयं किसी को त्याग, तप, संयम, प्रत्याख्यान, संवर आदि नहीं करा सकता। जितने भी कर्म हैं, उनका प्रयोजन आत्मा को संसारदशा में बांधे रखना है। त्याग कराना कर्म का प्रयोजन नहीं है। फिर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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