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________________ 9 ३४० : कर्म-विज्ञान : कर्मवाद का ऐतिहासिक पर्यालोचन (२) कर्म के कारण तीर्थंकर महावीर जैसे महापुरुष के कानों में कीले ठोके गये • और शालिभद्र जैसे व्यक्ति के लिए बिना मेहनत के दिव्यलोक से रत्नों की पेटियाँ उतर कर आती थीं । कर्म के प्रभाव से एक समय का करोड़पति' दूसरे दिन ही रोड़पति हो जाता है। कर्मप्रभाव से धनिक एवं सुख- सामग्री से सम्पन्न होने पर भी रोग, शोक, चिन्ता, इष्ट-वियोग, अनिष्ट - संयोगं आदि दुःखों से मनुष्य पीड़ित रहता है। कर्म के कारण ही एक व्यक्ति की जिंदगी रोने-धोने, पीड़ा सहने और अभावग्रस्त रहने में ही व्यतीत हो जाती है, जबकि दूसरे व्यक्ति को पानी मांगने पर और बिना माँगे भी दूध. मिलता है, बिना मेहनत किये ही सुखसामग्री मिलती है। कर्म के प्रभाव से ही प्राणी को विविध गतियाँ, योनियाँ, शरीर आदि प्राप्त होते हैं। अतः संसार में समस्त क्रियाओं, अन्तरों, वैर-विरोधों, अन्तरायों, राग-द्वेष आदि विकारों तथा समस्त व्यवहारों, विचारों और आचरणों के पीछे कर्म का ही एक मात्र हाथ है। काल और स्वभाव तो निमित्तमात्र हैं, भवितव्यता (नियति) भी अकस्मात् मात्र है। कोई दूसरा कारण नहीं मिलता तब मन को समझाने के लिए कहा जाता है कि ऐसा ही होना था, होनहार को कौन टाल सकता है ? कर्म अनुकूल हो तो काल भी वैसा ही आ जाता है, स्वभाव भी वैसा ही बन जाता है और भवितव्यता भी वैसी हो जाती है; पुरुषार्थ करने की बुद्धि भी शुभकर्म हों, तभी होती है, अन्यथा आलस्य, गपशप, निद्रा, लापरवाही आदि में ही मनुष्य का समय चला जाता है। कई बार उद्यम करने पर भी शुभ कर्मोदय न हो तो अभीष्ट वस्तु नहीं मिलती, अथवा मिल जाने पर भी हाथ से चली जाती है, या नष्ट हो जाती है । " अतः कर्म की शक्ति अचिन्त्य, अगाध, गहन एवं अपरम्पार है। विश्व के प्रत्येक कार्य में कर्म कारण है। प्राणी की प्रत्येक क्रिया कर्माधीन होती है। जिसने जैसा कर्म बाँधा है, उसके विपाक के अनुसार उसकी वैसी - वैसी बुद्धि और परिणति स्वतः होती चली जाती है। पुराने कर्म का परिपाक होता है, उसी के अनुसार संसारी छद्मस्थ प्राणी नये कर्म बाँधता जाता है। सृष्टिकर्तृत्ववादियों के मतानुसार उनका तथाकथित ईश्वर भी कर्मानुसार फल देता है। इस प्रकार जगत् की विचित्रता का समाधान कर्म को माने बिना हो नहीं सकता। अतः कर्मवाद का मूल उद्देश्य विश्व की दृश्यमान विषमता की गुत्थी को सुलझाना है। १. विशेष विवरण के लिए देखिये 'जैनदृष्टिए कर्म' पृ. २१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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