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________________ कर्मवाद के अस्तित्व - विरोधी वाद - २ ३२७ त्रिपिटक में अक्रियावादी 'पूरण काश्यप' के मत का संक्षेप में वर्णन किया गया है - "किसी ने कुछ भी किया हो, अथवा कराया हो, काटा हो, अथवा कटवाया हो, त्रास दिया हो, अथवा दिलवाया हो..... प्राणी का वध किया हो, चोरी की हो, घर में सेंध लगाई हो, डाका डाला हो, व्यभिचार किया हो, झूठ बोला हो, तो भी उसे पाप नहीं लगता। यदि कोई व्यक्ति तीक्ष्ण धार वाले चक्र से पृथ्वी पर मांस का ढेर लगा दे, तो भी इसमें लेशमात्र पाप नहीं है। गंगानदी के दक्षिण तट पर जाकर कोई मार-पीट करे, कत्ल करे या कराए, त्रास दे या दिलाए, तो भी रत्तीभर पाप नहीं है। गंगानदी के उत्तर तट पर जाकर कोई दान करे, या कराए, यज्ञ करे या कराए, तो इसमें कुछ भी पुण्य नहीं है। दान, धर्म, संयम, सत्यभाषण इन सबसे कुछ भी पुण्य नहीं होता। इसमें तनिक भी पुण्य नहीं है" । " सूत्रकृतांग में भी अक्रियावाद' का ऐसा ही वर्णन है। यह मत कर्मवाद के बिलकुल विपरीत है, पुण्य-पाप का समूल उच्छेद करने वाला सिद्धान्त है। इस मत पर चलकर मनुष्य न तो आध्यात्मिक विकास कर सकता है और न ही नैतिकता का आचरण कर सकता है। इस सिद्धान्त पर चलने से कर्ममुक्ति की कोई प्रेरणा नहीं मिलती। अतः अक्रियावाद निरर्थक है। अज्ञानवाद - अज्ञानवादियों का कहना है कि ज्ञान का बोझ मस्तक पर लदा रहता है। ज्ञानवादी उलटी-सीधी तर्फे करने लगता है। उसमें ज्ञान का अहंकार हो जाता है। ज्ञान के कारण व्यक्ति में हर समय अपनी बौद्धिक शक्ति से दूसरों को दबाने, सताने, हैरान करने, पराजित करने, गुलाम बनाने, शोषण करने की रट रहेगी । बहुत-से लोग इस प्रकार अपने पक्ष, दल या मत का अति आग्रह करके सत्य का अपलाप करते हैं। ज्ञान होने से मनुष्य एक पर राग करेगा, एक पर द्वेष, एक के पक्ष में बोलेगा, एक के विपक्ष में। इस प्रकार की झंझटों से बचने का सूत्र है - तस्मादज्ञानमेव श्रेयः इसलिए अज्ञान ही श्रेयस्कर है । परन्तु भला अज्ञान से कभी कर्मों से मुक्ति हो सकती है। अज्ञानी व्यक्ति बड़े-बड़े पापकर्म करते हुए नहीं हिचकिचाता। अज्ञानवाद कर्मवाद की जड़ों पर सीधा प्रहार करता है। बौद्धपिक में 'संजयवेलट्ठिपुत्त' के मत को अज्ञानवाद या संशयवाद कहा गया है। जैनागमों में अज्ञानवादियों के सम्बन्ध में कहा गया है कि ये १. बुद्धचरित पृ. १७० दीघनिकाय सामञ्ञफलसुत्त २. सूत्रकृतांग सूत्र १/१/१/१३ ३. वही, १/१/१/१३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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