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________________ कर्म - विज्ञान : कर्मवाद का ऐतिहासिक पर्यालोचन (२) अनन्त-अनन्त परमाणुओं का अपना स्वतन्त्र अस्तित्व है । लाख प्रयत्न करने पर भी दो परमाणुओं के स्वतन्त्र अस्तित्व को मिटाकर उनमें एकत्व स्थापित नहीं किया जा सकता। अतः जगत् में प्रत्यक्षसिद्ध अनन्त जड़चेतन सत्-पदार्थों के स्वतन्त्र अस्तित्व का अपलाप करके केवल एक ही पुरुष को अनन्त कार्यों के प्रति उपादान कारण मानना काल्पनिक, प्रतीतिविरुद्ध एवं उपहासास्पद है। ३२२ यदि अनुमान आदि प्रमाणों से इस अद्वैतैकान्त की सिद्धि की जाती है तो हेतु और साध्य, दोनों के पृथक् पृथक् होने से द्वैत की ही सिद्धि होती है, अद्वैत की नहीं । फिर इस तथाकथित अद्वैतैकान्त' में कारण और कार्य का, पुण्य और पापकर्म का कारक और क्रियाओं का, इहलोक और परलोक का, विद्या और अविद्या का, बन्ध और मोक्ष का तथा आस्रव और संवर आदि का वास्तविक भेद ही नहीं रह जाता, जो कि प्रतीतिसिद्ध है। अतः प्रतीतिसिद्ध विश्व व्यवस्था के विरुद्ध अद्वैतैकान्त ब्रह्मवाद की कल्पना कथमपि युक्तियुक्त सिद्ध नहीं होती । दूसरी बात - समग्र जगत् के पदार्थों में सत् का अन्वय देखकर एकमात्र एक सत्तत्त्व की कल्पना करना और उसे ही यथार्थ मानना प्रतीतिविरुद्ध है। जैसे 'नागरिक मण्डल' में 'मण्डल' शब्द तो पृथक्-पृथक् सत्ता वाले नागरिकों का सामूहिक रूप से व्यवहार करने के लिए कल्पित है, किन्तु स्वतन्त्र अस्तित्व वाला अमुक-अमुक नागरिक ही इसमें परमार्थसत् है; एक मण्डल नहीं। इसी तरह अनेक जड़-चेतन सत् पदार्थों में कल्पित एक सत् कदाचित् व्यवहार सत्य हो सकता है; परमार्थ सत्य नहीं । तीसरी बात यह है कि 'सर्वं खल्विदं ब्रह्म' कहकर दृश्यमान प्रपंच को ब्रह्म की माया कहा गया है, वह भी तर्कविरुद्ध है। प्रश्न होता. है - 'माया ब्रह्म से भिन्न है या अभिन्नं ? यदि भिन्न है तो माया और ब्रह्म इन दो पदार्थों का अस्तित्व मानना पड़ेगा, फिर अद्वैतवाद नहीं रहा, द्वैतवाद ही सिद्ध हुआ। यदि कहें कि माया ब्रह्म से अभिन्न है तब यह जागतिक प्रपंच कहाँ से आया? किसने और कैसे किया ? इस मान्यता में अनवस्था दोष उत्पन्न होगा । यदि यह कहा जाए कि यह दृश्यमान - प्रपंच मिथ्यारूप है, वह मिथ्या है, असत् है । किन्तु जैसे सीप के टुकड़े में चाँदी की प्रतीति. मिथ्या होती है, उसी प्रकार यह दृश्यमान जगत्-प्रपंच भ्रान्त और मिथ्या प्रतीत १. देखिये- 'आप्तमीमांसा' २/१-६ २. इसके निराकरण के लिए देखें- स्याद्वादमंजरी की इस कारिका की व्याख्या - 'माया सती चेद् द्वयतत्त्वसिद्धिः, अथासती हन्त कुतः प्रपञ्च ?' Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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