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________________ कर्मवाद के अस्तित्व - विरोधी वाद - १ ३११ जरा भी सन्देह नहीं है । उदाहरणार्थ-कोई व्यक्ति समुद्र पार करके सुदूर देश की यात्रा करता है, बड़े-बड़े गहन और भयानक जंगलों को पार करता है, अपने शरीर का लाखों प्रकार से जतन करता है, परन्तु जो होनी होती है, वही होती है, अनहोनी कभी नहीं होती। महान् निष्णात डॉक्टर पन्द्रह - पन्द्रह मिनट में इंजेक्शन लगाते हों, हजारों सेवक सेवा और परिचर्या में उपस्थित हों, परन्तु जो जीव मरने वाला होता है, वह इस लोक से विदा हो ही जाता है। दूसरी ओर एक व्यक्ति गाढ़ जंगल में हो, सुदूर पर देश यात्रा पर हो, उस समय दुःसाध्य रोग का शिकार हो जाए, और पास में इलाज करने वाला कोई वैद्य, डॉक्टर, हकीम अथवा परिचर्या करने वाला कोई कुटुम्बीजन न हो, फिर भी मृत्यु के मुख से उसे बचना हो तो वह बच ही जाता है। हम देखते हैं कि कोई व्यक्ति तीन मंजिले मकान से गिरने पर भी बच जाता है, और कोई व्यक्ति केले के छिलके से पैर फिसलते ही खत्म हो जाता है। इसलिए जीव का जीने का स्वभाव होने पर भी तथा हजारों प्रकार से रक्षा के लिए पुरुषार्थ करने पर भी और काल द्वारा भी सतत जीव को कवलित करने के लिए उद्यत होने पर भी परिणाम जो होना होता है, वही होता है। होनहार या भवितव्यता को कोई मिटा नहीं सकता; उसमें काल, स्वभाव या पुरुषार्थ का दाव नहीं चलता । ' जगत् में हम देखते हैं कि जिसके विषय में सोचा नहीं था, वह अप्रत्याशित, अतर्कितरूप से घटित हो जाता है, और पहले से सोचा हुआ . निष्फल हो जाता है। दुनिया में एक ही रात में शासन परिवर्तन, पद-परिवर्तन एवं व्यक्तित्व परिवर्तन हो जाता है। सोचा था एक और हो जाता है दूसरा ही । एक रूपक द्वारा इसे समझिये - एक वृक्ष पर कोयल केकारव कर रही थी। एक शिकारी ने सामने आकर उस पर तीर का निशाना ताका। उधर से उसे झपटने के लिए बाज उसके सिर पर मंडराने लगा। अगर कोयल ऊपर उड़े तो बाज उसे झपट कर खा जाए और यदि वह सामने उड़े तो शिकारी उसे खत्म कर दे। फिर भी भवितव्यता उसके अनुकूल है जिससे वह बच जाती है। क्योंकि शिकारी के पीछे एक विषधर सर्प बैठा था, उसने शिकारी को डस लिया । तीव्र वेदनावश शिकारी के हाथ से तीर छूट गया, वह उस बाज़ के जा लगा। शिकारी धरती पर पड़ा और वहीं उसने दम तोड़ दिया । १. नियतिवाद का विशेष वर्णन देखिये - 'उत्थान' का महावीरांक पृ. ७४ (श्वे. स्था. जैन कॉन्फ्रेस बम्बई द्वारा प्रकाशित) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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