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________________ कर्मशास्त्रों द्वारा कर्मवाद का अध्यात्ममूलक सर्वक्षेत्रीय विकास २९१ जिससे आत्मस्वरूप का भान होते ही व्यक्ति की अन्तर्दृष्टि खुल जाती है। सम्यग्दृष्टि खुलते ही व्यक्ति आत्मा में सुषुप्त परमात्मभाव को जान देख पाता है। उसी परमात्मभाव को पूर्णतः अनुभव में लाने, अर्थात्-स्वभाव में पूर्णतः लीन होने की प्रक्रिया कर्मशास्त्र बतलाता है। यही जीव का ब्रह्म (शिव) होना है। इसी परब्रह्म भाव को जीव में शीघ्र व्यक्त कराने की विधि धर्म- शुक्लध्यान के माध्यम से कर्मशास्त्र बताता है। पहले वह अभेदज्ञान के भ्रम से हटाकर जीव को भेदविज्ञान की ओर ले जाता है, फिर अभेद-ध्यान (शुक्ल - ध्यान) की उच्चभूमिका पर आत्मा को आरूढ़ होने की प्रेरणा देने भर का कार्य कर्मशास्त्र का है। एक दृष्टि से देखा जाए तो हिंसादि पांच आस्रवों एवं मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय, एवं योग आदि पांच आस्रव कारणों को दूर हटाकर आत्मा को, तप, संयम, व्रत- महाव्रत, (यम), नियम, त्याग प्रत्याख्यान, ध्यान, मौन, समिति - गुप्ति, परीषंहजय आदि के द्वारा अध्यात्म के उच्च- सर्वोच्च शिखर तक ले जाने का कार्य भी कर्मशास्त्र करता है। वह आत्मा के उत्तरोत्तर विकास के लिए शुभाशुभ कर्मों के आस्रवों का निरोध करने और संवर, संयम तथा समत्व में रमण करने का उपदेश देता है। साथ ही पुराकृत शुभाशुभ कर्मों के क्षय के लिए भी विविध उपाय बताता है। इससे यह स्पष्ट है कि कर्मशास्त्र प्राणियों के शुभाशुभ आचरणों का कार्य-कारण के रूप में विश्लेषण करता है। वह मनुष्यों की अच्छी बुरी वृत्ति - प्रवृत्तियों के कारण अच्छे-बुरे फल प्राप्त होने की स्पष्ट मीमांसा करता है। कर्मशास्त्र अध्यात्म को समझने की कुञ्जी है। अध्यात्म के सही और गलत रूप का निर्णय करने के लिए कर्मशास्त्र ही न्यायाधीश का कार्य करता है। अध्यात्म का उचित मूल्यांकन कर्मशास्त्र के सांगोपांग अध्ययन से ही हो सकता है। कर्मशास्त्र का गम्भीर अध्ययन करने से ही अध्यात्म की गूढ़ गुत्थियाँ सुलझाई जा सकती हैं। जो व्यक्ति कर्मशास्त्र को नजरअंदाज करके अध्यात्मवाद का परिशीलन करना चाहते हैं, वे अध्यात्म की गूढ़ बातों को न तो समझ सकते हैं, न ही आध्यात्मिक विकास कर पाते हैं, वे अध्यात्म के नाम पर इधर-उधर के कठोर क्रिया-कलापों में ही उलझ जाते हैं, उसी को वे अध्यात्मवाद समझ लेते हैं । इसलिए कर्मशास्त्र अध्यात्मवाद का परिपोषक एवं पूर्ण समर्थक है। वह प्राणियों को कर्मों के जाल में उलझाने और फंसाने के लिए नहीं है, अपितु कार्य-कारणों की पूर्ण मीमांसा करके जीवों को उनकी संसारगत अशुद्ध एवं पराधीन दशा बतलाकर कर्मों से छुटकारा पाने का मार्ग बताने के लिए है।. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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