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________________ २७८ कर्म-विज्ञान : कर्मवाद का ऐतिहासिक पर्यालोचन (२) कर्मविज्ञान के द्वारा हल सुझाया है। जबकि सांख्य और योगदर्शन ने कर्मवाद पर अपने ढंग से चिन्तन अवश्य किया था, मगर इन दोनों ने प्रायः ध्यान और तत्त्वचिन्तन पर ही अधिकाधिक ध्यान दिया। आगे चलकर तथागत बुद्ध आए, उन्होंने भी ध्यान पर अधिक जोर दिया। यही कारण है कि कर्मवाद की बारीकी और व्यापकता पर जैनकर्मशास्त्रियों ने सर्वाधिक ध्यान दिया। उसी के फलस्वरूप विपुल कर्मसाहित्य की रचना हुई, जिसका असाधारण महत्व है, दर्शनशास्त्र के अध्येता के लिए। फिर भी सांख्य, योग एवं बौद्ध आदि दर्शनों के साथ जैनकर्मवाद का बहुत कुछ साम्य है, मौलक बातों में भी काफी समानता है। जैनसाहित्य में कर्मवाद की प्रांजल व्याख्या वैदिक साहित्य और बौद्ध साहित्य में भी यत्र-तत्र कर्मसम्बन्धी चिन्तन मिलता है, परन्तु वह इतना स्वल्प है कि कर्मवाद के विशिष्ट जिज्ञासु अथवा शोधार्थी विद्वान, उतने भर से अपना मनःसमाधान नहीं कर सकते। उनका कोई विशिष्ट ग्रन्थ भी दृष्टिपथ में नहीं आता। प्रासंगिक रूप में यत्र-तत्र यत्किंचित् प्रकीर्णक विचार अवश्य किया गया है। किन्तु इसके विपरीत जैन वाङ्मय में कर्मवाद के सम्बन्ध में अमेकों ग्रन्थ उपलब्ध हैं, जिनमें कर्मवाद का पूर्वापरश्रृंखलाबद्ध, क्रमबद्ध, सुव्यवस्थित एवं व्यापकरूप में निरूपण किया गया है। इतना ही नहीं, कर्मविज्ञानविशेषज्ञों ने कर्म से सम्बद्ध विभिन्न तथ्यों को पारिभाषिक शब्दों में आबद्ध करके सैद्धान्तिक रूप दे दिया है। यों कहा जा सकता है कि जैन-वाङ्मय में कर्म-साहित्य का वही स्थान है, जो संस्कृत-साहित्य में व्याकरण का है। जैसे व्याकरण संस्कृतभाषा में निबद्ध साहित्य को अनुप्राणित एवं निर्वचनीकृत करता है, वैसे ही कर्मशास्त्र जैन दर्शन एवं जैनधर्म के समग्र साहित्य को अनुप्राणित एवं सुपुष्ट करता है। शब्दशास्त्र शब्दरचना को नियमबद्ध करता है, उसी प्रकार कर्मशास्त्र भी कर्मतत्त्वों को नियमबद्ध करता है। अतः जैनवाङ्मय में कर्मशास्त्र अथवा कर्मग्रन्थ के रूप में प्रख्यात कर्मसाहित्य का महत्त्वपूर्ण स्थान है। स्वतंत्र कर्मग्रन्थों के अतिरिक्त व्याख्याप्रज्ञप्ति, प्रज्ञापना, उत्तराध्ययन, विपाकसूत्र, निरया- वलिका आदि आगमों में तथा परवर्ती आचार्यों एवं कर्मशास्त्र के मर्मज्ञों द्वारा रचित ग्रन्थों में कर्म-सम्बन्धी चर्चा-विचारणा विशदरूप से हुई है। यद्यपि तीर्थंकर भगवान् महावीर द्वारा उपदिष्ट कर्मवाद के आधार पर संकलित एवं रचित कर्म-विषयक ग्रन्थों में सम्प्रदायभेद और भाषाभेद की दृष्टि से कुछ न कुछ परिवर्तन अवश्य हुआ है। भगवान् महावीर का शासन (धर्म-संघ) जिस समय दो शाखाओं में विभक्त हुआ, तब से कर्मशास्त्र Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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