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________________ २७२ कर्म-विज्ञान : कर्मवाद का ऐतिहासिक पर्यालोचन (२) और विकास कब से प्रारम्भ हुआ-२ इतना अवश्य कहा जा सकता है कि पूर्वकाल में भी कर्मतत्त्व-चिन्तकों में परस्पर विचार-विमर्श पर्याप्त मात्रा में हुआ करता था। प्रत्येक निवर्तक-धारा के चिन्तक-वर्ग ने अपने-अपने दर्शन में कर्मवाद का एक या दूसरे रूप में अवश्य ही विचार किया है। परन्तु जैन परम्परा में कर्मविज्ञान पर जितनी गहराई से श्रृंखलाबद्ध और सूक्ष्मातिसूक्ष्म विश्लेषण और उसके प्रत्येक पहलू पर जितना अधिक विवेचन हुआ है, उतना किसी अन्य-परम्परा में नहीं हुआ। इससे एक तथ्य स्पष्टतया अभिव्यक्त होता है कि जैनपरम्परा की कर्मविद्या का विशिष्ट निरूपण प्रत्येक तीर्थकर ने किया। ऐतिहासिक दृष्टि से तेईसवें तीर्थकर भगवान् पार्श्वनाथ से पहले वह अवश्य स्थिर हो चुका था। इसी विद्या के कारण जैन मनीषी कर्म-शास्त्रवेत्ता कहलाए और यही कर्मविद्या चतुर्दश पूर्वशास्त्रों में से अग्रायणीय पूर्व तथा कर्मप्रवादपूर्व के रूप में उपनिबद्ध एवं विश्रुत हुई। यद्यपि यह प्रश्न उठाया जा सकता है कि भगवान् महावीर से पूर्व भी उनके समान ही भगवान् पार्श्वनाथ, नेमिनाथ आदि जैनधर्म के तीर्थकर एवं मुख्य-मुख्य प्रवर्तक हुए हैं, और उन्होंने भी अपने-अपने युग में जैनशासन (धर्मसंघ) का प्रवर्तन भी किया है। सभी इतिहासज्ञ उन्हें जैनधर्म के धुरन्धर नायक एवं ऐतिहासिक पुरुष मानते हैं। ऐसी स्थिति में जैनदृष्टि से कर्मवाद के समुत्थान एवं विकास का काल उन तीर्थकरों के समय से माना जाए तो क्या आपत्ति है ? इस विषय में प्रज्ञाचक्षु पं. सुखलालजी का समाधान द्रष्टव्य है'"यह बात भूलनी न चाहिए कि भगवान् नेमिनाथ तथा पार्श्वनाथ आदि जैन धर्म के मुख्य प्रवर्तक हुए हैं और उन्होंने जैनशासन को प्रवर्तित भी किया है; परन्तु वर्तमान में जैन-आगम, जिन पर इस समय जैनशासन अवलम्बित है, वे उनके उपदेश की सम्पत्ति नहीं।"........ "यह बात निर्विवाद सिद्ध है कि इस समय जो जैनधर्म श्वेताम्बरदिगम्बर शाखा रूप से वर्तमान है, इस समय जितना जैन तत्त्व ज्ञान है, और जो विशिष्ट परम्परा है, वह सब भगवान् महावीर के विचार का चित्र है। अतः कर्मवाद के समुत्थान का.....यही समय.....अशंकनीय समझना चाहिए।" कर्मवाद के समुत्थान का मूलस्रोत श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही परम्पराएँ समानरूप से मानती हैं कि बारह अंग और चौदहपूर्व भगवान् महावीर के विशद उपदेशों का १. कर्मग्रन्थ प्रथम भाग की प्रस्तावना, पृ. ९ से उद्धृत Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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