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________________ २६६ कर्म-विज्ञान : कर्मवाद का ऐतिहासिक पर्यालोचन (२) प्रजापति) ने सूर्य, चन्द्र, द्यौ, पृथ्वी, अन्तरिक्ष तथा स्वर्ग आदि सबकी रचना यथापूर्व की । ' तैत्तिरीय उपनिषद् में भी कहा है- "जिससे ये सब भूत (प्राणी) जन्म लेते हैं, जिससे जातक (जीव) जीते हैं, वही पालन-पोषण करता है, जिसमे सभी समाविष्ट (विलीन) हो जाते हैं, उसे विशेषरूप से जानो। वह ब्रह्म है ।" इसी प्रकार मनुस्मृति में कहा गया है - "यह सृष्टि आदिकाल में तमोमय थी; अज्ञात, अलक्षित, अप्रतर्क्स, अविज्ञेय, चारों ओर से प्रसुप्त (व्याप्त) थी, उस अव्यक्त भगवान् स्वयम्भू ने इसे व्यक्त किया। महाभूत आदि में अन्धकार निवारक ओज धारण करके वह स्वयं प्रादुर्भूत हुआ । उसने यह कहकर अपने शरीर से विविध प्रजा (प्राणियों) का सृजन किया। उसने सर्वप्रथम जल का सृजन किया। उसमें बीज का सृजन किया। फिर वह सहस्रांशु (सूर्य) के समान प्रभा वाला स्वर्णमय अण्डा हो गया। उसमें स्वयं सर्वलोक-पितामह ब्रह्मा ने जन्म लिया । "" इन उद्धरणों से स्पष्ट है कि विधाता, ब्रह्म, ब्रह्मा तथा ईश्वर आदि के विषय में आम धारणा यह बन गई थी कि जगत् (सृष्टि) का कर्त्ता, धर्ता और संहर्त्ता ईश्वर ब्रह्मा ही है। वही समस्त जड़-चेतन सृष्टि का उत्पादक है। सृष्टि में जो कुछ अच्छा-बुरा होता है, वह सब ईश्वर की लीला है। ईश्वर ही अच्छे या बुरे कर्मों का फल जीवों से भुगवाता है। कर्म अपने आप में जड़ हैं। वे अपना फल स्वयं नहीं दे सकते। इसी तरह संसार में सभी प्राणी अज्ञ हैं, वे अपने अच्छे या बुरे कर्मों का फल स्वयं नहीं भोग सकते। अतः कर्म भी ईश्वर की प्रेरणा से अपना फल देते हैं, और ईश्वर के द्वारा ही अच्छे-बुरे कर्मों का सुख-दुःख रूप फल का भुगतान होता है। १. "सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथा पूर्वमकल्पयत्। दिवं च पृथिवी, चान्तरिक्षमथो स्वः ॥ - ऋग्वेद म. १०, सू. १९ मं. ३ २. यतो वा इमानि भूतानि जायते । येन जातानि जीवन्ति । यत्प्रयन्त्यभिविशन्ति, - तैत्तिरीयोपनिषद् ३-१ तद्विजिज्ञासस्य तद्ब्रह्मेति । ३. आसीदिदं तमोभूतमप्रज्ञातमलक्षणम् । अप्रतर्क्यमविज्ञेयं प्रसुप्तमिव सर्वतः ॥ ५ ॥ तत्स्वयम्भूर्भगवानव्यक्तो व्यञ्जयन्निदम् । महाभूतादिषु सुतेजः प्रादुरासीत्तमोनुदः ॥ ६ ॥ सोऽपि विधाय शरीरात् स्वात् सिसृक्षुर्विविधाः प्रजाः । अप एव स सर्जादौ, तासु बीजमिवासृजत् ॥ ८ ॥ तदण्डमभवद्धैमं सहस्रांशु समप्रभम् । तस्मिञ्जज्ञे स्वयं ब्रह्मा सर्वलोक-पितामहः ॥ ९ ॥ Jain Education International - मनुस्मृति अ. १. श्लोक ५ से ९ तक For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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