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________________ २३६ . कर्म-विज्ञान : कर्मवाद का ऐतिहासिक पर्यालोचन (२) .. जैन इतिहास के अनुसार उस युग से पहले तक भोगभूमि का साम्राज्य था। यौगलिक काल था। सभ्यता, संस्कृति, धर्म और कर्म के विषय में वे लोग सर्वथा अनभिज्ञ थे। धर्म और संस्कृति का, कर्म और सभ्यता का श्रीगणेश नहीं हुआ था । बालक-बालिका युगलरूप से जन्म लेते थे और युगलरूप से ही वे दाम्पत्य सम्बन्ध जोड़ लेते थे। अन्त में, एक युगल को जन्म देकर वे इस लोक से विदा हो जाते थे । वे अपना जीवन निर्वाह वनों में रहकर पेड़-पौधे, पत्र-पुष्प फल घास एवं वनस्पति आदि से कर लेते थे। ओढ़नेबिछाने आदि के लिए विविध वनस्पति से उपकरण बना लेते थे। वृक्षों के चारों ओर घेरा डालकर अथवा वृक्ष-लताओं से चारों ओर आवेष्टित करके घर बना लेते थे। खेती-बाड़ी, अग्नि के उपयोग, विनिमय, व्यवसाय, बर्तन आदि के निर्माण का आविष्कार उस समय तक नहीं हुआ था। यद्यपि उन लोगों का जीवन बहुत ही शान्त, मधुर और प्राकृतिक (प्रकृति-निर्भर) था; पृथ्वी, वनस्पति, हवा, सूर्य का ताप और प्रकाश, चन्द्र का शीतल, सौम्य प्रकाश, पानी के झरने, स्रोत, नदी-नाले आदि ही उनके जीवनयापन के आधार थे। जनसंख्या सम रहती थी, उसमें वृद्धि-हानि नहीं होती थी, इस कारण किसी वस्तु का अभाव या न्यूनता नहीं थी। प्राकृतिक सम्पदाएँ प्रचुरमात्रा में यत्र-तत्र मिलती थीं। इस कारण उनमें कभी आपस में संघर्ष, कलह, तू-तू-मैं-मैं या मन-मुटाव नहीं होता था। उनके क्रोधादि कषाय अत्यन्त मन्द थे। स्वार्थ, लोभ, लालसा, तृष्णा, संग्रहवृत्ति, अत्यधिक उपभोगलिप्सा अथवा पंचेन्द्रिय विषयों की काम-भोगजन्यवृत्ति आदि भी उनमें अत्यन्त कम थी। किन्तु इस भोगभूमिक काल का जब तिरोभाव होने जा रहा था, तब इन सबमें परिवर्तन आने लगे। यौगलिक काल लगभग समाप्त हो चला था। संततिवृद्धि होने लगी। इससे जनसंख्या भी बढ़ने लगी। उधर प्राकृतिक सम्पदा में कोई वृद्धि नहीं हो रही थी। वह उतनी ही थी। अतः जीवन-निर्वाह के साधनों में कमी होने लगी। जहाँ अभाव होता है, वहाँ जनस्वभाव भी बदलने लगता है। इस दृष्टि से यौगलिक जनों में जीवन-निर्वाह के साधनों के लिए परस्पर संघर्ष होने लगा। प्रतिदिन के संघर्ष से लोगों का जीवन कलुषित होने लगा। परस्पर कलह और मनोमालिन्य बढ़ने लगे। . १. देखिये जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति प्रथम वक्षस्कार "जुगलिया किमाहारा पण्णता ? पत्ताहारा, पुफ्फाहारा फलाहारा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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