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________________ २३४ कर्म-विज्ञान : कर्मवाद का ऐतिहासिक पर्यालोचन (२) आत्माएं हैं वे सभी कर्ममल से आवृत हैं। हाँ, उस कर्ममल में तरतमता अवश्य ही होती है। प्रश्न है, वे कर्म किस-किस प्रकार के हैं, कितने हैं? उन कर्मों का आगमन किन कारणों से होता है ? वे कर्म किस प्रकार बंधते हैं और किस अनुपात से उनका बंधन होता है? उन कर्मों का निरोध, क्षय, क्षयोपशम और उपशम किस प्रकार हो सकता है वे कर्म कब और कितने समय के पश्चात् अपना फल देते हैं ? उन कर्मों से आत्मा कैसे सदा के लिए पूर्णतया मुक्त हो सकता है? ये और इस प्रकार के कर्म से सम्बन्धित प्रश्नों पर उन महर्षियों ने गंभीर चिन्तन किया। उन्होंने शान्त मस्तिष्क से चिन्तन करते हुए सोचा - अध्रुव, अशाश्वत और दुःखबहुलं संसार में वह कौन सा कर्म या अनुष्ठान है, जिससे मैं दुर्गति में न जाऊँ । ' फिर उन्होंने अपनी अनुभव-पूत वाणी में कहा था 'तवसा धुयकम्मंसे सिद्धे हवइ सासए । २ - - तपस्या से कर्मों का क्षय करके वे शाश्वत सिद्ध-मुक्त हो जाते हैं। जैनदृष्टि से कर्मवाद का आविर्भाव सर्वथा कर्ममुक्ति की ओर जाना अनिवार्य जैनधर्म के आगमों और पौराणिक ग्रन्थों में कर्म के आविर्भाव की कुछ-कुछ झांकी मिलती है। उससे इतना तो स्पष्ट रूप से जाना जा सकता है कि प्रागैतिहासिक काल में भी तीर्थंकरों और ऋषि-मुनियों ने आध्यात्मिक विकास के सन्दर्भ में कर्मवाद की चर्चा- विचारणा अवश्य की है। जैनधर्मशास्त्रों की मान्यता के अनुसार इस अवसर्पिणी काल में आदितीर्थंकर भगवान ऋषभदेव से लेकर श्रमण भगवान् महावीर तक जो चौबीस तीर्थंकर हुए हैं, उनसे पहले भी उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल के कालचक्र में भी अनन्त चौबीसी (चौबीस - चौबीस तीर्थंकरों की श्रृंखला) हो चुकी है। यह सिद्धान्त सभी तीर्थंकर, केवलज्ञानी (सर्वज्ञ), जीवन्मुक्त (सदेहमुक्त) महान् आत्माओं के लिए अबाधित है कि चार घाती (आत्मगुणघातक) कर्मों का सर्वथा क्षय किये बिना कोई भी मानव तीर्थंकर, केवलज्ञानी या अर्हत् - जीवन्मुक्त परमात्मा नहीं हो सकता, और सिद्ध १. अध्रुवं असासयम्मि संसारम्मि दुक्खपउराए। किं नाम होज्ज तं कम्मयं जेणाऽहं दोग्गइं न गच्छेज्जा ॥ २. उत्तराध्ययन सूत्र अ. ३ गा. २० Jain Education International - उत्तराध्ययन सूत्र अ. ८ गा. १ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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