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________________ २१२ · कर्म-विज्ञान : कर्मवाद का ऐतिहासिक पर्यालोचन (२) आत्मगुणों के विघातक चार घातिकर्मों का समूल उन्मूलन करके वे स्वयं वीतराग, जीवन्मुक्त परमात्मा बने। अपना मौलिक एवं स्वयम्भू अनुभव-प्रसाद भी उन्होंने संसार को वितरित किया। जिस समय उन पर भयंकर संकट, विघ्न, कष्ट और उपसर्ग आए, उस समय भी उन्होंने किसी भी अन्य शक्ति, भगवान् या प्रभु से सहायता की अथवा उस संकट एवं कष्ट से उबारने की प्रार्थना/याचना नहीं की; उन्होंने अपने आपको टटोला, अपनी देह में विराजमान विदेह (शुद्ध आत्मा) की शक्ति की खोज की और अपनी आत्म-शक्ति के सहारे उस संकट एवं कष्ट का समभाव से सामना किया, उसे अपनी तितिक्षाशक्ति से पराजित किया। उन्होंने अपने विशुद्ध ज्ञान में देखा कि मेरे पूर्वकृत अशुभ कर्म ही मेरे इस संकट और कष्ट के कारण हैं। उसमें निमित्त कोई भी हो सकता है। अतः मुझे निमित्त पर किसी प्रकार का दोषारोपण या रोष-द्वेष किये बिना अपने उपादान (आत्मा) को ही दोषयुक्त मानकर उक्त पूर्वकृतकर्म के फलस्वरूप प्राप्त कष्ट या संकट को समभाव से भोग कर क्षय करना चाहिए और अपनी आत्मा की शुद्धि करनी चाहिए। उदाहरणार्थ-श्रमण भगवान् महावीर के जीवन को ही लें। भगवान् महावीर ने देखा कि शुद्ध आत्मा के साथ कर्म लगकर उसे विकृत एवं दुर्बल बनाये हुए हैं। अतः वे अकेले ही उन कर्मों से जूझने के लिए उद्यत हुए । साधना-काल में पूर्वकृत अशुभ कर्मों के फलस्वरूप कितने ही संकट, उपसर्ग एवं कष्टों के पहाड़ उन पर टूटे; परन्तु भगवान् महावीर अकेले ही समभाव से सहकर उन कर्मों को क्षय करते जा रहे थे। एक बार भक्तिपूर्ण हृदय से देवेन्द्र ने आकर प्रभु-चरणों में निवेदन किया- "भगवन् । आप पर बड़े-बड़े संकट आ रहे हैं। अबोधजन आपको पीड़ा पहुँचाते हैं। अतः मैं आपकी सेवा में रहकर आपकी हर प्रकार से सेवा करूँगा ताकि कोई आपको कष्ट न दे सके।" भगवान् महावीर ने इन्द्र को उत्तर दिया- "देवराज। ऐसा नहीं हो सकता। अगर कोई कष्ट देता है तो इसमें मेरा क्या बिगड़ता है ? मिट्टी के इस शरीर को कोई हानि पहुँचा सकता है, अच्छेद्य-अभेद्य आत्मा को कैसे नष्ट कर सकता है ? रही बात मेरी साधना में तुम्हारी सेवा और सहायता की। तुम्हारी यह धारणा ठीक नहीं है। सहायता लेने से मैं पराश्रित और सुविधा का गुलाम बन जाऊँगा। फिर मैं कष्ट-सहिष्णु एवं तितिक्षु होकर कर्मो को क्षय नहीं कर सकूँगा।' १. "स्ववीर्येणैव गच्छन्ति जिनेन्द्राः परमं पदम्। -त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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