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________________ २०४ - कर्म-विज्ञान : कर्म का अस्तित्व (१) बचाव कर लेने की उपलब्ध तरकीबें ढूँढकर अनीति अपनाने से मिलने वाले अर्थलाभादि को छोड़ना नहीं चाहता। समाज और राज्य के संगठन में इतने छिद्र हैं कि सत्कर्मों का सत्परिणाम मिलना तो दूर, दुष्कृत्यों का दण्ड भी प्रायः नहीं मिलता। अपराधी खुलकर खेलते रहते हैं और अपनी चालाकी और चतुरता के आधार पर कुकृत्यों का किसी प्रकार का दण्ड पाये बिना मौज करते रहते हैं।' कर्म को परलोकानुगामी न मानने से बहुत बड़ी हानि __ इस स्थिति को देखकर सामान्य मनुष्यों का मन भी अनैतिकता अपनाने और दुष्कृत्य करके अधिक लाभ उठाने के लिए लालायित हो जाता है। इस पापलिप्सा पर अंकुश रखने के लिए कर्म और कर्मफल पर दृढ़ आस्था रखकर मरणोत्तर जीवन को मानना बहुत ही आवश्यक है। अन्यथा व्यक्ति, समाज और राष्ट्र के जीवन में अनैतिक-अवांछनीय तत्वों की बाढ़-सी आ जाएगी और मर्यादाओं के बाँध टूट जाएँगे। धार्मिक . मान्यताओं का अंकुश रहने पर भी जब लोग दुष्प्रवृत्तियाँ अपनाने में संकोच नहीं करते, तब मानसिक नियंत्रण न रहने की स्थिति में तो भयंकर स्वच्छन्दाचार, निरंकुशता एवं उच्छंखलता के फैल जाने पर समूची मानवजाति का ही नहीं, समग्र प्राणि जगत् का भारी अहित होगा। यह भीषण मान्यता व्यक्ति की गरिमा और समाज की सुरक्षा, दोनों दृष्टियों से खतरनाक है। आस्तिकता के मुख्य चार अंग अपनाने आवश्यक भौतिक विज्ञान ने शरीर के साथ जीव की सत्ता का अन्त हो जाने का जो नास्तिकवादी प्रतिपादन किया है, उसका परिणाम तो हम नैतिकता और परोपकारवृत्ति की सत्प्रवृत्तियों का बांध तोड़ देने वाली विभीषिका के रूप में देख रहे हैं। अतः व्यक्ति की आदर्शवादिताा, गरिमा, समाज और राष्ट्र की स्वस्थ परम्परा और सुरक्षा के लिए आत्मा, परलोक-पुनर्जन्म, कर्म और कर्मफल के प्रति पूर्ण आस्था रखने की आवश्यकता है। इसी आस्तिकता के इन चार महत्वपूर्ण अंगों का प्रतिपादन 'आचारांग सूत्र' में इसी दृष्टि से किया गया है कि “आत्मा की शाश्वतता, लोक परलोक (स्वर्ग-नरकादि) तथा पुनर्जन्म के अस्तित्व, कर्म एवं सत्क्रिया-दुष्क्रिया के फल (कर्मफल) के अस्तित्व पर जो दृढ श्रद्धा रखता है, वही सच्चा आस्तिक है।"२ १. (क) अखण्ड ज्योति, जुलाई १९७४ से सारांश उद्धृत (ख) अखण्ड ज्योति, मई ७६ २. 'से आयावादी लोयावादी कम्मावादी किरियावादी ।' - आचारांग सूत्र श्रु. १, अ. १, उ.१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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