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________________ कर्म अस्तित्व के प्रति अनास्था अनुचित २०१ ये चार सिद्धान्त अध्यात्म की सभी शाखाओं द्वारा स्वीकृत (१) शरीर की नश्वरता, (२) आत्मा की अमरता, (३) कर्म और कर्मफल की सुनिश्चितता तथा (४) परलोक-पुनर्जन्म की अवश्यम्भाविता, ये चार सिद्धान्त ऐसे हैं, जो किसी न किसी रूप में अध्यात्म की सभी शाखाओं में प्रतिपादित किये गये हैं। कई धर्म-सम्प्रदायों में अमुक (कयामत-प्रलय के) दिन पापों के (स्वीकार करने पर) क्षमा हो जाने की और मरणोत्तर जीवन की स्थिति के विषय में मतभेद है फिर भी वह मान्यता लचीली है, उसमें पुनर्जन्म और कर्म तथा कर्मफल के अस्तित्व का किसी न किसी रूप में स्वीकार का स्वर है। वह मान्यता इतनी कठोर (कट्टर) नहीं कि उससे उपर्युक्त चार अध्यात्म-सिद्धान्त जड़-मूल से कट जाते हों, क्योंकि ये चारों अध्यात्म सिद्धान्त व्यक्तिगत जीवन के अधिकाधिक पावन एवं शालीन बनाने की भूमिका तैयार करते हैं, तथा सामाजिक, पारिवारिक एवं राष्ट्रीय जीवन को भी सुख-शान्तिमय बनाने की आधारशिला रखते हैं। कर्म के अस्तित्व को भले ही नैतिक रूप में न मानकर साम्प्रदायिक विश्वासों की परिधि में लपेट लिया गया हो, फिर भी यह नहीं कहा गया कि अच्छे-बुरे कर्म का कोई फल नहीं मिलता। इस जीवन में नहीं, तो मरणोत्तर जीवन में भी कर्म किसी न किसी रूप में बना रहता है, वह समय आने पर फल देता है। निष्कर्ष यह है कि छोटे-मोटे मतभेदों के रहते हुए भी मूल सिद्धान्तों से प्रायः सभी धर्म-सम्प्रदाय या दर्शन सहमत हैं। मरणोत्तर जीवन में कर्म और कर्मफल के मानने से लाभ ___ वर्तमान जीवन में शुभ कर्म करने पर भले ही इस जन्म में उसका सुखद प्रतिफल न मिले, परन्तु मरणोत्तर जीवन में उसका मंगलमय परिणाम उपलब्ध हो जाएगा, इसी विश्वास के आधार पर लोग त्याग और बलिदान के बड़े से बड़े साहसपूर्ण कदम उठाते रहते हैं। कर्म और कर्मफल मरणोत्तर जीवन में भी कर्ता के पीछे आता है, यदि इस सिद्धान्त में विश्वास न होता तो भगवान् महावीर, तथागत बुद्ध, श्री राम और श्री कृष्ण, ईसामसीह, सुकरात, हजरत मोहम्मद अथवा अन्य महान् आध्यात्मिक पुरुष क्यों अपने जीवन में भयंकर कष्ट सहते, तपस्या करते, त्याग और बलिदान करते। इसी प्रकार इस जन्म में किये गए पापों के दण्ड से भले ही इस समय चालाकी या चातुरी से बचाव कर लिया जाए, पर आगे चलकर उसका दण्ड भुगतना ही पड़ेगा, यह सोचकर मनुष्य दुष्कर्म करने से अपने हाथ रोक लेता है और कुमार्ग पर पैर बढ़ाने से डरताझिझकता रहता है। अधिकांश क्रूरकर्मा पापपरायण व्यक्ति अन्तिम समय में मरणोत्तर जीवन में मिलने वाले कर्मफल का विचार करके शोकसंतप्त हो Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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