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________________ कर्म अस्तित्व के प्रति अनास्था अनुचित १९५ सुखद फल की सम्भावना पर अविश्वास करके उन्हें छोड़ बैठते हैं और दुष्कर्मों का हाथोंहाथ फल न मिलते देखकर उन्हें धड़ल्ले के साथ करने लगते हैं। अदूरदर्शी प्राणी स्वयं दुर्दशा के जाल में फंसते हैं ___ कर्म एवं उसके फल के अनिश्चित होने की बात सोचकर ही अधिकांश अदूरदर्शी व्यक्ति दुष्कृत्य करते हैं, कुमार्ग पर चलते हैं, और दुर्दशा के जाल में फंसते हैं। संसार में प्रत्येक अदूरदर्शी प्राणी दुर्दशा और दुरवस्था का शिकार होता है। ऐसी ही अदूरदर्शिता के कारण पक्षी पारधी द्वारा फैलाये हुए जाल में फंस जाते है, वे अन्नकण देखते हैं, जाल नहीं। अदूरदर्शी मछली आटे के लोभ में अपना गला फंसाती है और बेमौत मारी जाती है। रोशनी पर अंधाधुंध टूट पड़ने वाले पतंगे, केवल प्रकाश को देखते हैं, अपनी मृत्यु को नहीं। इसी प्रकार मक्खी चाशनी के लोभ में उस पर बैठकर अपने पंख चिपका लेती है और तड़फ-तड़फकर प्राण दे देती है। कर्म के अस्तित्व के प्रति संदिग्ध दुष्कर्मों के कारण दण्डित होता है इस दूरदर्शिता, बुद्धिमत्ता और धैर्य को तिलांजलि देकर जो व्यक्ति निःसंकोच दुष्कर्म करते रहते हैं, वे भले ही कुछ लोगों की दृष्टि में भले बने रहें, परन्तु उन्हें अपने दुष्कर्मों का फल कई रूप में मिलता ही है। समाज में उनकी निन्दा होती है। चरित्रवान् लोग उनसे घृणा करने लगते हैं। ऐसे लोग दूसरों की आँखों में अविश्वस्त, अप्रामाणिक और असम्माननीय ठहरते है। उन्हें किसी का ठोस सहयोग एवं विश्वास नहीं मिलता। पारिवारिक जन भी उन्हें सदा आशंका की दृष्टि से देखते हैं। परिजनों से उन्हें आत्मीयता एवं घनिष्ठता का लाभ नहीं मिलता। जनता के विश्वास और सहयोग के अभाव में वे नैतिक, आध्यात्मिक, आर्थिक एवं सामाजिक क्षेत्र में प्रगति से वंचित रहते है। समाज द्वारा घृणा, तिरस्कार, अपमान, असहयोग, अप्रतिष्ठा, उपेक्षा आदि के रूप में दुष्कर्मों का जो दण्ड मिलता है, वह कम नहीं है। उसकी अन्तरात्मा भी अपने दुष्कर्मों के कारण पीड़ित, चिन्तित एवं व्यथित रहती है। वह अंदर ही अंदर सदैव उसे कचोटती रहती है। १. (क) अखण्ड ज्योति सितम्बर १९७७ से सार संक्षेप । (ख) यत्करोत्यशुभं कर्म, शुभं वा यदि सत्तम । _अवश्यं तत्समाप्नोति पुरुषो नाऽत्र संशयः ।। - महाभारत वनपर्व, अ. २०८ १. अखण्ड ज्योति सितम्बर १९७७ से सार संक्षेप Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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