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________________ १९० कर्म-विज्ञान : कर्म का अस्तित्व (१) फरेब, चोरी-डकैती, व्यभिचार - अनाचार आदि दुष्कर्मों में निःशंक प्रवृत्त होने से वे भयंकर महामोहनीय कर्मों का बन्ध कर लेते हैं, जिनसे जन्म-जन्मान्तरों तक पिण्ड छुड़ाना दुष्कर हो जाता है। उत्तराध्ययन सूत्र में बताया है कि प्रचुर कर्मों के लेप से लिप्त जीवों को अनेक जन्मों तक बोधि (सम्यक्त्व या सम्यग्दृष्टि) प्राप्त होनी' अति दुर्लभ होती है और जो लोग कर्म के अस्तित्व के प्रति संदिग्ध होकर दुष्कर्म तो नहीं करते, किन्तु पूर्वबद्ध कर्मों का क्षय करने तथा नये आते हुए कर्मों को रोकने के लिए कोई पुरुषार्थ निर्जरा और संवर में नहीं करते, वे भी पूर्वकृत कर्मों के उदय में आने पर अकस्मात् घोर संकट, विपत्ति और दुःखों से घिर जाते हैं। ऐसी दुष्परिस्थिति में उन्हें पश्चात्ताप के सिवाय कोई चारा नहीं रहता । अश्रद्धालुओं द्वारा घोर दुष्कर्म अनन्त संसारभ्रमण का कारण जो व्यक्ति कर्म और कर्मफल के अस्तित्व के प्रति अश्रद्धालु होकर भयंकर दुष्कृत्य करते रहते हैं, उनके घोर दुष्कर्मों के दुष्परिणामों का तो कहना ही क्या ? मंखलीपुत्र गोशालक भगवान् महावीर से पृथक् होकर उनका कट्टर विरोधी बन गया। वह स्वतंत्र आजीवक सम्प्रदाय की स्थापना करके कर्मवाद के प्रति आस्थाहीन बन गया। उसने नियतिवाद की स्थापना की। कर्म और कर्मफल व्यवस्था को मानने से उसने इन्कार कर दिया। जीवों को सुख-दुःख, सम्पत्ति - विपत्ति सब कुछ नियति, भवितव्यता या होनहार से होता है। फलतः उसे हिंसादि से कर्मबन्ध होने और उसके उदय में आने पर उन दुष्कर्मों के कटुफल भोगने का कोई विचार नहीं रहा। वह मिथ्याग्रस्त हो गया। स्वच्छन्दाचारी बनकर मनमानी प्ररूपणा करता रहा। अहंकार से उद्धत होकर वह भगवान् की घोर निन्दा करता रहा, स्वयं को तीर्थंकर बताकर जनता की दृष्टि में तीर्थंकर महावीर को गिराने का उपक्रम करता रहा। हिंसा जैसे घोर दुष्कर्म का विचार न करके उसने भगवान् महावीर के दो शिष्यों - सर्वानुभूति और सुनक्षत्र मुनि को तेजोलेश्या के प्रहार से भस्म कर दिया। यहाँ तक कि विश्ववत्सल भगवान् महावीर जैसे उपकारी गुरु पर भी उसने तेजोलेश्या का प्रहार करके उन्हें भस्म करना चाहा। परन्तु उसका यह दाँव उलटा ही उस पर पड़ा। भगवान् महावीर पर छोड़ी गई तेजोलेश्या पुनः गोशालक पर ही पड़ी और उसका सारा तन-वदन उसकी अत्यन्त उष्णता के कारण प्रज्वलित होने लगा। उसके प्रभाव से वह विक्षिप्त और उन्मत्त-सा इधर-उधर घूमता रहा १. बहुकम्मलेव - लित्ताणं बोही होइ सुदुल्लहा तेसिं । Jain Education International For Personal & Private Use Only उत्तराध्ययन सूत्र ८/१५ www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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