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________________ कर्म का अस्तित्व विभिन्न प्रमाणों से सिद्ध १६३ इसके विपरीत (शुभ) दृष्ट फल की इच्छा करने पर भी दृष्टफल की प्राप्ति हो ही, ऐसा एकान्त नियम नहीं है; क्योंकि इसका मूल कारण तो पूर्वबद्ध अदृष्ट कर्म ही होता है। जैसे- कोई व्यक्ति दृष्ट फल धान्य आदि के लिए कृषि आदि क्रिया करता है, उसे उसका धान्य आदि दृष्ट फल पूर्वबद्धकर्म के कारण कदाचित् न भी मिले, मगर अदृष्ट कर्म रूप फल तो अवश्य मिलेगा ही ; क्योंकि सचेतन द्वारा प्रारम्भ की गई कोई भी क्रिया निष्फल नहीं होती । ' यही तथ्य विशेषावश्यक भाष्य में अन्यत्र व्यक्त किया गया है कि "एक सरीखे साधन होने पर भी फल (परिणाम) में जो अन्तर मानव जगत् में दिखाई दे रहा है, वह बिना कारण के नहीं हो सकता। जैसे - एक सरीखी मिट्टी और एक ही कुम्हार द्वारा बनाये जाने वाले घड़ों में पंचभूत समान होते हुए भी अन्तर (तारतम्य) दिखाई देता है, इसी प्रकार एक ही माता-पिता के, एक साथ उत्पन्न हुए दो बालकों में साधन और पंचभूत एक समान होने पर भी उनकी बुद्धि, शक्ति आदि में जो अन्तर पाया जाता है, उसका कोई न कोई कारण अवश्य होना चाहिए । गौतम ! इस अन्तर या तारतम्य का कारण कर्म - पूर्वकृत कर्म ही है। कार्य और कारण भिन्न-भिन्न होने चाहिए। सचेतन द्वारा की गई क्रिया कारण है, और कर्म (फल) उसका कार्य है । इस दृष्टि से भी सचेतन द्वारा की गई क्रिया का कोई न कोई अदृष्ट कर्मरूप फल ऐसा होना चाहिए, जो उस क्रिया से भिन्न हो । इसलिए दृष्ट फल विशेष रूप कार्य का भी कोई न कोई अदृष्ट पूर्वकृत कर्मरूप फल अवश्य होना चाहिए। इन सब अनुमानों से कर्म के अस्तित्व की सिद्धि में कोई भी सन्देह नहीं रह जाता। ' 'माता के गर्भ में आने से लेकर जन्म होने तक बालक को जो भी दुःख भोगने पड़ते हैं, उन्हें बालक के इस जन्म के कर्मों का फल तो नहीं कहा जा सकता; क्योंकि गर्भावस्था में अविकसित चेतनाशील बालक ने कोई भी अच्छा या बुरा काम नहीं किया है। उन दुःखों को माता-पिता के कर्मों का १ विशेषावश्यक भाष्य ( गणधरवाद) गा. १६२२-२३ पृ. ३६ २ (क) जो तुल्ल साहणाणं फले विसेसो ण सो विणा हेउ । कज्जतणओ गोयमा ! घडोव्व हेऊ य सो कम्म ॥ (ख) कर्ममीमांसा पृ. ९-१० ३. कर्ममीमांसा पृ. ११-१२ Jain Education International - विशेषावश्यक भाष्य गा. १६१३ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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