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________________ विलक्षणताओं का मूल कारण : कर्मबन्ध १४५ इन विलक्षणताओं के मूल कारण आनुवंशिकता आदि नहीं, पूर्वजन्म संचित कर्म ही हम देखते-सुनते हैं कि बहुधा बालक की योग्यता माता-पिता से अलग प्रकार की होती है। जो बलिष्ठता और वीरता महाराणा प्रताप में थी, वह उनके पूर्वजों या माता-पिता में नहीं थी । जो प्रखरबुद्धि ईश्वरचन्द्र विद्यासागर में थी, वह उनके पिता में नहीं थी । हेमचन्द्राचार्य की प्रतिभा • और विद्यार्जन के कारण उनके माता-पिता नहीं माने जा सकते, उनके गुरु भी उनकी प्रतिभा के मुख्य कारण नहीं थे। श्रीमती एनीबेसेंट में जो विलक्षण शक्ति थी, वह उनके माता-पिता में नहीं थी, न ही उनकी पुत्री में थी। ऐसे भी अनेक उदाहरण देखे जाते हैं कि माता-पिता शिक्षित और संस्कारी थे, किन्तु उनका पुत्र निरक्षर भट्टाचार्य रहा । जो उदार स्वभाव अकबर बादशाह का था, वैसा उसके पूर्वजों का नहीं था। जो क्रूरता और धर्मान्धता औरंगजेब में थी, वह उसके पिता और अन्य भाइयों में नहीं थी । यहाँ तक देखा जाता है कि जिस बात में माता-पिता की रुचि बिलकुल नहीं होती, उसमें उनका बालक सिद्धहस्त हो जाता है। इन सब विलक्षणताओं का कारण केवल आनुवंशिकता या पारिपार्श्विक वातावरण या संयोग को नहीं माना जा सकता, क्योंकि एक साथ जन्मे हुए दो बालकों में भी कई बार आकृति, प्रकृति और कषायादि विकृति में समानता प्रतीत नहीं होती। माता-पिता की एक समान देखभाल होने पर भी एक साधारण ही रहता है, दूसरा उससे कई गुना आगे बढ़ जाता है। एक का रोग से पिण्ड नहीं छूटता, जबकि दूसरा बड़े-बड़े पहलवानों से हाथ मिलाता है। एक दीर्घजीवी बनता है, जबकि दूसरा सैकड़ों प्रयत्न करने पर भी यम का अतिथि बन जाता है। एक की इच्छा संयत होती है, दूसरे की असंयत । एक सरीखी परिस्थिति और समान देखभाल होते हुए भी अनेक विद्यार्थियों में विचार और व्यवहार की भिन्नता देखी जाती है। यह परिणाम बालक के पृथक्-पृथक् ज्ञान- तन्तुओं का भी एकान्ततः नहीं माना जा सकता, क्योंकि बालक का शरीर तो माता-पिता के रज-वीर्य से बना होता है, फिर उनमें अविद्यमान ज्ञान-तन्तु बालक के मस्तिष्क में कहाँ से आए ? हाँ, माता-पिता की ज्ञानशक्ति बालक में कहीं-कहीं अवतरित होती हैं, परन्तु बालक को वैसा सुयोग क्यों मिला ? बालक के जन्मजन्मान्तर-संचित पूर्व कर्म ही इन सबके मूल कारण हैं। ' १ कर्मग्रन्थ भा. १ प्रस्तावनां (विवेचन - पं. सुखलालजी) पृ. ३३ से सारांश Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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