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________________ कर्म अस्तित्व का मुख्य कारण: जगत्वैचित्र्य १२५ विभंगज्ञान होता है, यही हाल देवों का है । उन्हें भी या तो तीन ज्ञान होते हैं, या फिर तीन कुज्ञान । मनुष्यों में अवधिज्ञान, मनःपर्यायज्ञान और केवलज्ञान, इन तीन प्रत्यक्ष ज्ञानों को छोड़कर मति श्रुत जैसे दो परोक्ष ज्ञानों (इन्द्रिय-प्रत्यक्ष ज्ञानों) में भी असंख्य प्रकार के तारतम्य पाए जाते हैं। इन सबका कारण दार्शनिक, मनोवैज्ञानिक या नास्तिक लोग चाहे बौद्धिक क्षमता-अक्षमता या ज्ञान - तन्तुओं की सबलता - दुर्बलता बता दें, परन्तु इन सबके मूल कारण जीवों के अपने-अपने 'कर्म' ही हैं । " (८) संज्ञा, संज्ञी - जैनशास्त्रों में चार प्रकार की संज्ञा बताई गई हैं'आहारसंज्ञा, भयसंज्ञा, मैथुनसंज्ञा और परिग्रह- संज्ञा । इन चारों संज्ञाओं में भी किसी जीव में कोई संज्ञा अधिक और कोई संज्ञा कम दिखाई देती है । किसी में ये चारों ही संज्ञाएं अत्यन्त मन्द होती हैं और किसी में अत्यन्त तीव्र । इस प्रकार के तारतम्य का कारण प्रत्येक जीव के अपने-अपने कर्म ही होते हैं । अथवा कई जीव समनस्क (लब्धि और उपयोगरूप भावमन व द्रव्य मनवाले -संज्ञी) होते हैं और निगोद आदि के अनन्त जीव अमनस्क (द्रव्यमन से रहित - असंज्ञी) होते हैं । समनस्क जीवों की मानसिक चेतना के विकास में भी अगणित प्रकार का अन्तर पाया जाता है। मन के साथ चित्त, बुद्धि और हृदय का घनिष्ठ सम्बन्ध है, इसलिए इन्हें भी जैन आगमों में मन के ही अन्तर्गत मान लिया गया है । इस दृष्टि से एकेन्द्रिय से लेकर चतुरिन्द्रिय जीवों तक में भावमन होने पर भी उनकी मानसिक चेतना, •बौद्धिक स्फुरणा, चित्तीय एकाग्रता, आदि कई बातों में बहुत अन्तर पाया जाता है । संयम, दर्शन और लेश्या को लेकर जीवों में विभिन्नता भी कर्म के कारण (९) संयम' - संयम पांचों इन्द्रियों पर नियंत्रण का नाम है । संसार में कई जीव ऐसे हैं, जिनका इन्द्रियों पर कोई नियंत्रण नहीं है, कुछ जीव ऐसे १ ज्ञायते परिच्छिद्यते वस्त्व तेनास्मादस्मिन्वेति वा ज्ञानम् । – अनुयोगद्वार टीका २ (क) संज्ञिनः समनस्काः । - तत्त्वार्थ सूत्र (ख) आहारादि विषयाभिलाषः संज्ञा । - सर्वार्थसिद्धि २/४ (ग) णो इंदिय आवरण खओवसमं, तज्जबोहणं सण्णा । सा जस्सा सो दु सण्णी इदरो सेसिंदियअवबोहो ॥ - गोम्मटसार ( जी.) ६३० (क) चउव्विहे संजमे - मणसंजमे, वइसंजमे, कायसंजमे, उवगरणसंजमे । - स्थानांग ४/२ (ख) गरहा-संजमे, नो अगरहा संजमे । - भगवती १/९ . Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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