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________________ ११८ कर्म-विज्ञान : कर्म का अस्तित्व (१) मोक्षगत् मुक्त-सिद्ध आत्माओं का भी वैसा ही स्वरूप है । इसमें तिलभर भी भेद नहीं है । सम्यग्दृष्टि पुरुष निश्चयदृष्टि से इस तथ्य को भली-भांति जानता-मानता है कि मेरी आत्मा और सिद्धप्रभु की आत्मा में द्रव्य-दृष्टि से कोई अन्तर नहीं है । " सांसारिक जीवों में विभिन्नता या विचित्रता विजातीय तत्त्व के कारण प्रश्न होता है, द्रव्यदृष्टि या निश्चयदृष्टि से जब स्वरूप की अपेक्षा से विश्व के समस्त जीव (आत्माएँ) एक समान हैं, तब यह भेद डालने वाला, आत्माओं में विभिन्नता एवं विषमता पैदा करने वाला कौन सा ऐसा विजातीय तत्त्व है, जो इनकी पृथक्-पृथक् आकृति - प्रकृति, स्वभाव की मात्रा में न्यूनाधिकता और आत्मगुणों में तथा चेतना के विकास में हीनाधिकता उत्पन्न कर देता है ? इसका समाधान जैन कर्मविज्ञान-मर्मज्ञों ने बहुत ही सुन्दर ढंग से किया है । उन्होंने बताया कि द्रव्यदृष्टि से अर्थात् - अपने मूलस्वरूप की दृष्टि से विश्व की सभी आत्माएँ शुद्ध हैं, एक स्वरूप हैं, अशुद्ध नहीं है, किन्तु जो भी अशुद्धता है, विषमता, विसदृशता या विभिन्नता है, वह सब विभाव के कारण-पर्यायदृष्टि से है । जिस प्रकार दूध अपने आपमें शुद्ध है, परन्तु उसमें दही आदि की खटाई पड़ते ही उसकी पर्याय बदल जाती है, कई बार दूध फट जाता है । शुद्ध दूध से उसकी पृथक्ता खट्टे पदार्थ के संयोग के कारण होती है । इसी प्रकार जल का अपने आप में शीतल स्वभाव है, किन्तु बाहर के तैजस् पदार्थों के संयोग से उसमें उष्णता आ जाती है । इसी प्रकार सौ टंची सोना अपने आपमें शुद्ध है, किन्तु उसमें मिट्टी और किट्टिका के मिल जाने से अशुद्धता आ जाती है । यही बात आत्मा के सम्बन्ध में समझिए । २. शुद्ध सौ टंची सोने में बाहर के विजातीय तत्त्वों (मिट्टी, पीतल आदि ) की खोट मिल जाने पर भी कोई व्यक्ति शुद्ध सोने की डली और खोट मिले हुए सोने की डली सर्राफ के पास बेचने हेतु ले जाएगा तो वह दोनों के मोल-भाव में बहुत ही अन्तर बताएगा । बेचने वाला यदि उससे कहेगा कि सोना-सोना तो सभी एक हैं, फिर इनके मूल्य एवं भाव में इतना अन्तर क्यों बता रहे हो ? तब सर्राफ यही कहेगा - यह डली तो शुद्ध सोने की है, १ २ (क) कर्म मीमांसा पृ. ६ (ख) कर्मवाद : एक अध्ययन पृ. ५-६ कर्मवाद : एक अध्ययन पृ. ५-६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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