SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 115
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ परामनोवैज्ञानिकों की दृष्टि में पुनर्जन्म और कर्म ९३ यहाँ आकर पैदा हो गई। ये सभी बातें, विशेषतया ईसाई परिवार की लड़की के लिए बड़ी विचित्र थीं, जिसमें पुनर्जन्म की मान्यता नहीं है। किन्तु उस लड़की की पूर्वजन्म की स्मृति के अनुसार, उसके द्वारा बताये गये देश तथा स्थान में जाकर पता लगाया, जांच-पड़ताल की, तो मालूम हुआ कि उसका कथन यथार्थता की कसौटी पर बिलकुल खरा था।' मुस्लिम परिवार से सम्बद्ध पूर्वजन्म-स्मृति की घटना अब लीजिए इस्लाम धर्म की बालिका के पूर्वजन्म स्मृति की घटना। 'अजमेर के जैनस्थानक में कविरत्न उपाध्याय श्री केवलमुनि जी के दर्शनार्थ एक महिला अपनी एक बालिका को लेकर आई। मां का नाम थाकिरणदेवी और बालिका का नाम था-मीना। उस समय वह चार-पांच वर्ष की थी। और जब-तब अपनी मां के समक्ष अपने पूर्वजन्म की बातें कहने लगती थी- "मेरा घर आगरा में है। मैं मुसलमानी हूँ । मेरा पति है। उसके दो पत्नियाँ हैं। वहाँ मेरे दो बच्चे हैं, मैं नमाज पढ़ना जानती हूँ। इत्यादि।" मीना जब ये बातें कहती तो उसकी मां उसे डांट-डपट कर चुप कर देती। आज भी बातचीत के सिलसिले में किरणदेवी ने मीना के द्वारा जब-तब कही जाने वाली इन पूर्वजन्म-सम्बन्धी बातों का जिक्र किया तो उन्होंने किरणदेवी को समझाया-आत्मा नित्य और अविनाशी है। पिछले जन्म के प्रबल कर्मजन्य संस्कारों को साथ लेकर वह अगले जन्म में आती है। उन संस्कारों की स्मृति को जैनशास्त्रों में जाति-स्मरण-ज्ञान कहते हैं। अतः अगर यह बच्ची पिछले जन्म की बातें कहती है तो उसे रोको-टोको मत, ध्यानपूर्वक सुनो।" किरणदेवी के सहमत होने के पश्चात् श्री केवलमुनिजी ने मीना को आश्वासन दिया, और उसके पिछले जन्म की बातें कहने के लिए प्रोत्साहित किया। मीना ने कहा-"मैं पिछले जन्म में आगरा रहती थी। लोहामंडी की एक गली में हमारा छोटा-सा मकान था। मेरा नाम नूरजहाँ था। हमारे घर से थोड़ी दूर जैन भवन था। वहाँ मैं कभी-कभी पहुँच जाती थी। वहाँ प्रायः जीवदया पर मुनिश्री का प्रवचन होता था, उसे मैं सुना करती थी। फिर मैं जैन पाठशाला में पढ़ी, वहाँ भी मुझे यही शिक्षा मिली। इसके बाद मेरी इस्लाम की शिक्षा शुरू हुई। मौलवी साहब ने मुझे नमाज पढ़ना सिखाया। मैं जब १३-१४ साल की हुई तो मेरी मां सालभर की बीमारी के बाद चल बसी। पिताजी मेरे विवाह के लिये चिन्तित रहते थे। एक दिन एक व्यक्ति ने मेरे पिताजी को सुझाव दिया कि है. वही, जुलाई १९७४, के लेख से पृ. १३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy