SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 97
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ षट्प्राभृते [ १.२५ विलोक्य । कथंभूतानां ? ( सीलस हियाणं ) व्रतरक्षासहितानां । ( जे गारवं कति ब) ये पुरुषा जैनाभासास्तथान्ये च गर्वं कुर्वन्ति चकारात्सेवां न कुर्वन्ति । ( सम्मत्तविवज्जिया होंति ) सम्यक्त्वरहिता भवन्ति, मिथ्यादृष्टयो भवन्ति, - सम्यक्त्वरत्नच्युता भवन्ति, महापातकिनो भवन्ति, दीर्घकाले संसारमध्ये पर्यटन्ति । उक्तं च ૪૪ ये गुरुं नैव मन्यन्ते तदुपास्ति न कुर्वते । अन्धकारो भवेत्तेषामुदितेऽपि दिवाकरे ।। मुनिपद धारण नहीं करता और न अपने शिथिलाचारसे उसे कलङ्कित ही करता है । कुन्दकुन्द स्वामीने अपवाद वेषके रूप में पीछी कमण्डलु शास्त्र तथा शरीर की स्थिरताके निमित्त दिनमें एक बार शुद्ध आहार ग्रहण करना बतलाया है ॥ २४ ॥ गाथार्थ - जो देवोंसे वन्दित तथा शीलसे सहित तीर्थंकर परमदेवके ( द्वारा आचरित मुनियों के नग्न ) रूपको देखकर गर्व करते हैं वे सम्यक्त्व से रहित हैं ।। २५ ।। विशेषार्थ - तीर्थंकरका नग्नरूप भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवोंके द्वारा वन्दनीय है तथा शोल अर्थात् व्रतको रक्षासे सहित हैं। वैसे मुनियोंके नग्न रूपको देखकर जो जेनाभास अथवा अन्य धर्मी लोग गर्व करते हैं तथा उनको उपासना नहीं करते हैं वे सम्यग्दर्शन यानी सम्यक्त्वरूपी रत्नसे रहित हैं, मिध्यादृष्टि हैं, सम्यक्त्वरत्नसे च्युत हैं, महापातकी हैं और दोर्घकाल तक संसारके मध्य भ्रमण करते हैं। कहा भी है ये गुरु-जो गुरुको नहीं मानते हैं, और न उनकी उपासना करते हैं उनके सूर्योदय होने पर भी अन्धकार बना रहता है [ यहाँ मिथ्यात्व को अन्धकार कहा है। सूर्योदय होनेपर लोक का बाह्य अन्धकार नष्ट हो सकता है पर मिथ्यात्व रूप अभ्यन्तर अन्धकार नष्ट नहीं हो सकता । उसे नष्ट करने के लिये सम्यक्त्व रूपो सूर्योदय की आवश्यकता रहती है और वह तब तक नहीं हो सकता जब तक नग्न-दिगम्बर मुद्राधारी - निग्रन्थ गुरुओंके प्रति आस्था नहीं होती | ] ॥ २५ ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy