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________________ 34 षट्प्राभृते - [१. २१एवं जिणपण्णत्तं दसण-रयणं घरेह भावेण। सारं गुणरयणत्तय सोवाणं पढम मोक्खस्स ॥२१॥ एवं जिनप्रणीतं दर्शनरत्नं धरत भावेन । - सारं गुणरत्नत्रयेषु सोपानं प्रथमं मोक्षस्य ॥२१॥ ( एवं ) पूर्वोक्तप्रकारेण । ( जिणपण्णत्तं ) जिनः प्रणीतम् जिनैः कथितम् ।। (दंसणरयणं) दर्शन-रत्न सम्यक्त्व-माणिक्यम् । (घरेह भावेण ) घरत यूयं .. भावेन वीतराग-सर्वज्ञस्य भक्त्या । उक्तञ्च एकापि समर्थेयं जिनभक्तिर्दुर्गति निवारयितुम् । पुण्यानि च पूरयितुं दातु मुक्तिश्रियं कृतिनः ।। कथंभूतं दर्शन-रत्नम् ? (सारम् ) उत्कृष्टम् । केषु सारम् ? (गुण-रयणत्तय) गुणेषु उत्तमक्षमादिषु तथा रत्नत्रये सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रषु । उक्तञ्च 'दर्शनं ज्ञान-चारित्रात् साधिमानमुपाश्नुते दर्शनं कर्णधारं तन्मोक्षमार्गे प्रचक्षते ॥ गाथार्ष-इस प्रकार जिनेन्द्र भगवान् के द्वारा कहे हुए सम्यग्दर्शनरूपी रत्न को हे भव्यजीवो! भावपूर्वक धारण करो। यह सम्यग्दर्शनरूपी रत्न उत्तम क्षमादि गुणों तथा सम्यग्दर्शनादि तीन रत्नों में श्रेष्ठ है और मोक्ष की पहली सीढ़ी है ॥२१॥ विशेषार्थ-इस प्रकार वीतराग सर्वज्ञ देव ने जिस सम्यग्दर्शनरूपी माणिक्य का निरूपण किया है वह उत्तम क्षमा आदि गुणों में तथा सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्ररूपो रत्नत्रयों में उत्कृष्ट है तथा मोक्षरूपी महल की पहली सीढ़ी है। इसे आप लोग वोतराग सर्वज्ञ देव की भक्ति से धारण करो, क्योंकि कहा है एकापि-हे कुशल जन हो ! यह एक ही जिनभक्ति कुगति का निवारण करने के, पुण्य को पूर्ण करने और मुक्तिरूपी लक्ष्मी को देने के लिये समर्थ है ॥ दर्शनं-चूकि सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र की अपेक्षा श्रेष्ठता को १. रत्नकरण्डश्रावकाचारे समन्तभद्रस्य ३१ । २. प्राप्नोति-सेवते (क. टि.)। ३. कीदृशं दर्शनं कर्णधारं 'कर्णधारस्तु नाविकः' इत्यमरवचनात् भववारिषी पारं प्रापयितु अदः दर्शनम् । भाषायां 'खेवटिया' इति ज्ञातव्यम् । (क. टि.) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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