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________________ षट्प्राभृते उद्धद्धमझलोए कई मज्झं ण अहयमेगागी । इय भावणाए जोई पावंति हु सासयं सोक्खं ॥८१॥ ऊर्ध्वाधोमध्यलोके केचित् मम न अहंकमेकाकी । इति भावनया योगिनः प्राप्नुवन्ति हि शाश्वतं सौख्यम् ॥ ८१ ॥ ( उद्धद्धमज्झलोए ) ऊर्ध्वलोकेऽघोलोके मध्यलोके । ( केई मज्झं ण अह - मेगागी ) केचिज्जीवा मम न वर्तन्ते, अहकं अहं एकाकी एक एव वर्ते । ( इय भावणाए जोई ) इति भावनया योगिनो मुनयः । ( पार्वतिहु सासयं सोक्खं ) प्राप्तुवन्ति लभन्ते हु—स्फुटं शाश्वतं सौख्यं अविनश्वरं परमनिर्वाणसुखं । ठाण इति पाठे शाश्वतं अविनश्वरं स्थानं मोक्षं प्राप्नुवन्तीति सम्बन्धः । देवगुरूणं भत्ता णिव्वेयपरंपरा विचितंता । झाणरया सुचरिता ते गहिया मोक्खमग्गमि ॥ ८२ ॥ देवगुरूणां भक्ताः निर्वेदपरम्परां विचिन्तयन्तः । ध्यानरताः सुचरित्राः ते गृहीता मोक्षमार्गे ||८२|| (देवगुरूणं भत्ता) देवानामष्टादशदोषरहितानामिन्द्रादिपूजितानां पंचकल्याण -- प्राप्तानां अष्टमहाप्रातिहार्यशोभितानां संसारसमुद्र निस्तारकाणां भव्यकमलबोधमार्तण्डानामित्याद्यनन्तगुण गरिष्ठानामर्हद्देवानां तथा गुरूणां निग्रं न्याचार्यवर्याणां ६५६. गाथार्थ - 'ऊर्ध्व मध्य और अधोलोक में कोई जीव मेरे नहीं हैं में अकेला ही हूँ' इस प्रकार की भावना से योगी शाश्वत - अविनाशी सुखको प्राप्त होते हैं ॥ ८१ ॥ [ ६. ८१-८२ विशेषार्थ -- ऊर्ध्वलोक, मध्यलोक और अधोलोक में कोई भी जीव मेरे नहीं हैं - मेरा किसी के साथ स्वामित्व नहीं है में अकेला ही हूँमेरे प्रति किसीका स्वामित्व नहीं है इस प्रकार की भावना से योगी शाश्वत सुख - अविनश्वर परम निर्वाण सुखको प्राप्त होते हैं । 'सास सोक्खं' के बदले कहीं 'सासयं ठाणं' पाठ है उसका अर्थ अविनाशी मोक्षस्थान को प्राप्त होते हैं ऐसा समझना चाहिये ||८१ || गाथार्थ - जो देव और गुरुके भक्त हैं, वैराग्य की परम्पराका विचार करते रहते हैं, ध्यान में तत्पर रहते हैं तथा शोभन - निर्दोष आचार का पालन करते हैं वे मोक्षमार्ग में अजीकृत हैं ॥ ८२ ॥ | विशेषार्थ - जो अठारह दोषों से रहित, इन्द्रादि के द्वारा पूजित, पञ्चकल्याणका को प्राप्त आठ महाप्रातिहार्यों से शोभित संसार समुद्र से पार करनेवाले, भव्य रूपी कमलों को विकसित करने के लिये सूर्य तथा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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