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________________ षट्नाभृते [६. ६०तथापि तपश्चरणं विरात्रादिकं तपश्चरणं करोति । ( गाऊण धुर्व कुज्जा तवयरणं पाणजुत्तो वि) इति ज्ञात्वा, ध्रुवमिति निश्चयेन, कुर्याद्विदध्यात्, किं तत् ? तपश्चरण ज्ञानयुक्तोऽपि । अहं सकलशास्त्रप्रवीणः किं ममोपवासादिना तपश्चरणेनेति न वाच्यमिति भावः । उक्तं च उववाससो एक्कहो फलेण संवोहियपरिवार । णायदत्तु दिवि देव हुउ पुणरवि णायकुमारु ॥१॥ तें कारणि जिय पइभणमि करि उववासब्भासु । जाम्व ण देहकुडिल्लयहि ढुक्कइ मरणहुँ यासु ॥ २ ॥ .. यदज्ञानेन जीवेन कृतं पापं सुदारुणं ।। उपवासेन तत्सर्वं दहत्यग्निरिवेन्धनं ॥१॥ तथा चोक्तं प्रभाचन्द्रेण तार्किकलोकशिरीमणिना उपवासफलेन भजति नरा भुवनत्रयजातमहाविभवान् । खलु कर्ममलप्रलयादचिरादजरामरकेवलसिद्धिसुखं ॥१॥ विशेषार्थ-यद्यपि तीर्थकर भगवान् नियम से मोक्षगामी हैं तथा दीक्षा लेते ही मनःपर्यय ज्ञानके भी उत्पन्न होजाने से चार ज्ञानके धारी हैं तथापि वे वेला तेला आदि उपवास करते हैं ऐसा जानकर ज्ञानी पुरुष को भी तपश्चरण करना चाहिये । यह नहीं विचारना चाहिये कि मैं तो सकल शास्त्रों में प्रवीण हैं मुझे उपवास आदि तपश्चरण करने से क्या प्रयोजन है। कहा भी है___उववासहो-एक उपवास के फलसे परिवार को संबोधित करने वाला नागदत्त स्वर्ग में देव हआ और फिर नागकुमार हुआ ॥१॥ तेंकारणि--इसलिये हे जीव ! मैं कहता हूँ कि जब तक शरीर रूपी कुटी पर मरण रूपी अग्नि का आक्रमण नहीं होता है तब तक उपवास का अभ्यास कर ॥२॥ यवज्ञानेन-इस जोवने अज्ञान वश जो भयंकर पाप किया है उपवास से वह सब उस प्रकार जल जाता है जिस प्रकार कि अग्नि से इंधन ||३|| ऐसा ही तार्किकजनों के शिरोमणि प्रभाचन्द्र ने कहा है उपवासफलेन--उपवास के फलसे मनुष्य तीनों लोकों में उत्पन्न होने वाले महान् वैभवों को प्राप्त होते हैं और कर्म रूपी मलको नष्ट कर निश्चय से शोघ्र ही अजर-अमर पद, केवल ज्ञान और मोक्ष के सुखको प्राप्त होते हैं ॥१॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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